क्यों विपक्ष के लीडर राहुल गांधी बार बार भारत के लोक तंत्र को विदेशों में टारगेट करते हैं?

क्यों विपक्ष के लीडर राहुल गांधी बार बार भारत के लोक तंत्र को विदेशों में टारगेट करते हैं?

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कोलंबिया की यूनिवर्सिटी में जब लीडर ऑफ ऑपोजिशन राहुल गांधी ने फरमाया कि भारत में "जम्हूरियत पर हमला हो रहा है," तो शायद उन्हें लगा होगा कि पूरी दुनिया दहल जाएगी। लेकिन हुआ उल्टा — हिंदुस्तानियों ने सिर पकड़ लिया। विपक्ष का नेता अगर संसद में सरकार पर वार करे तो समझ आता है, लेकिन मुल्क की बुराई विदेश में करना, ये कौन सी अक़्लमंदी है?

राहुल कई बार एटम और हाइड्रोजन बम गिरा चुके हैं, मगर फुसफुसाहट की जगह धमाका नहीं हो पा रहा। बार बार आग लगाकर, समूचे विपक्ष की छवि को कालिख पोतकर, एक तरह से भाजपा को ही मदद कर रहे हैं। कांग्रेस में कई काबिल नेता हैं, उनको भी आगे बढ़ने का मौका नहीं देते।

उनकी वाणी में न संयम है न मर्यादा, तथ्य तो फिर भी बहसबाजी के लिए तोड़े मरोड़े जा सकते हैं। राहुल को शायद अब तक एहसास नहीं कि वो कॉलेज डिबेट नहीं, बल्कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के बारे में विदेशियों के सामने बोल रहे थे।

ये कोई पहली बार नहीं। हर कुछ महीनों में राहुल कोई ऐसा बयान दे डालते हैं जिससे उनकी पार्टी परेशान और विरोधी खु़श हो जाते हैं। याद कीजिए, अमरीका में एक समुदाय पर दिए उनके बयान पर कैसे भारत में मुक़दमा ठोक दिया गया। या फिर बतौर विपक्ष के नेता उनका पहला ही भाषण, जिसमें इतनी बातें अशोभनीय निकलीं कि आधा हिस्सा रिकॉर्ड से मिटाना पड़ा। सच की लड़ाई लड़ने का दावा करने वाले राहुल को शायद सबसे ज़्यादा दिक़्क़त सच और तहज़ीब से ही है।

पैटर्न बार-बार वही है। राहुल गांधी पहले बोलते हैं, बाद में सोचते हैं। लीडरशिप मतलब सूझबूझ, साफ़गोई और अल्फ़ाज़ से भरोसा जगाना। राहुल के बोल से उल्टा असर होता है — उनके चाहने वाले शर्मिंदा, और विरोधी गदगद।
डॉ देवाशीष भट्टाचार्य

उनके आरोप भी कम मज़ेदार नहीं। “वोट चोरी!” का नारा लगाते हुए वो चुनाव आयोग को कठघरे में खड़ा कर देते हैं, मगर सबूत? कुछ भी नहीं। ज़िम्मेदार लीडर आंकड़े और दस्तावेज़ रखते हैं, राहुल को बस नारा चाहिए। और हार का ठीकरा अपने सर लेने के बजाय गुजरात में उन्होंने अपनी ही पार्टी वर्करों को बीजेपी का एजेंट बता दिया। वाह रे लीडर! अपनी ही फौज का मनोबल तोड़ कर कौन सी जंग जीती जाती है?

और चुप्पियाँ भी देख लीजिए। दरभंगा की रैली में जब मंच से प्रधानमंत्री और उनकी दिवंगत माँ के ख़िलाफ़ गालियाँ गूँजीं, राहुल मौन साधे बैठे रहे। एक असली नेता वहीं डाँट देता, पर राहुल हमेशा की तरह खामोश।

बाक़ी उनके पुराने नमूने कौन भूल सकता है? स्टीव जॉब्स को माइक्रोसॉफ़्ट का संस्थापक बता देना। मासूमियत से कहना: “आज सुबह मैं रात को उठ गया।” सत्ता और सत्य में गड़बड़ी कर देना। कर्नाटक में सर एम. विश्वेश्वरैया का नाम अटक-अटक कर पढ़ना। लोकसभा की सीटें ग़लत गिनाना। अकेले में ये छोटी-छोटी चूक लगती हैं, मगर मिलाकर तस्वीर साफ़ हो जाती है — ये आदमी सियासत के लिए तैयार ही नहीं।

डॉ देवाशीष भट्टाचार्य कहते हैं, "पैटर्न बार-बार वही है। राहुल गांधी पहले बोलते हैं, बाद में सोचते हैं। लीडरशिप मतलब सूझबूझ, साफ़गोई और अल्फ़ाज़ से भरोसा जगाना। राहुल के बोल से उल्टा असर होता है — उनके चाहने वाले शर्मिंदा, और विरोधी गदगद।"

पब्लिक कॉमेंटेटर प्रोफेसर पारस नाथ चौधरी के मुताबिक, "हिंदुस्तान को आज ऐसे लीडर की ज़रूरत है जो नज़रिया रखता हो, ज़िम्मेदारी उठाता हो, और मज़बूती से लोगों का रास्ता दिखाए। कांग्रेस के पास है राहुल गांधी — एक ऐसा वारिस जो अब भी बचपन की क्लास से बाहर नहीं निकल पाया। उनकी हर स्पीच याद दिलाती है: मोदी का मुक़ाबला करने वाला कोई नेता नहीं, बस एक मज़ाक खड़ा हुआ है।"

राजनैतिक आब्जर्वर्स का कहना है कि राहुल गांधी की हताशा उनके चुनावी अभियानों की असफलताओं से उपजी मानसिकता है। मजबूरी में कांग्रेस पार्टी को अपने दुश्मनों या प्रतिद्वंदियों, जैसे समाजवादी पार्टी, लालू पार्टी, से विपक्षी एकता के नाम पर, हाथ मिलना पड़ता है। "Porcupines के साथ सोओगे तो कांटे ही लगेंगे," कहते हैं समीक्षक सुब्रमनियन। अगर कांग्रेस को विकल्प बनना है तो एकला चलो के सिद्धांत पर जनता के बीच अपनी विचारधारा को उतरना पड़ेगा।

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