गठबंधन से फायदा नहीं फिर भी बसपा का सबको चाहिए साथ!
लखनऊ, अक्तूबर 1 (TNA) उत्तर प्रदेश की राजनीति में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की राजनीतिक ताकत काफी कम हो गई है, फिर भी बसपा उसकी प्रासंगिकता अभी कम नहीं हुई. बल्कि दूसरी पार्टियों को बसपा का साथ पाने की आतुरता बढ़ गई है. यह जानते हुए भी कि बसपा के साथ गठबंधन करने वाले दल को उसका फायदा नहीं मिलता, गठबंधन का फायदा सिर्फ बसपा को मिलता है. कई बार तो बसपा का वोट सहयोगी पार्टी को ट्रांसफर नहीं हुआ और सहयोगी पार्टियों का वोट बसपा को मिल गया.
ऐसा पिछले लोकसभा चुनाव में ही हुआ. इस चुनावी गणित के आधार पर बसपा सुप्रीमो मायावती को भी यह पता है कि अगर आगामी लोकसभा चुनाव अकेले लड़े तो फिर वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव वाला हाल होगा. यानी पार्टी जीरो सीट पर आ जाएगी. ऐसे में अब जब बसपा अकेले लड़ने के लायक नहीं रह गई है तो बसपा को अपने खेमे में लाने के लिए राजनीतिक खिचड़ी पकाई जा रही है. और यह माना जा रहा है कि बसपा चुनावी तालमेल के लिए उपलब्ध है.
गुपचुप तरीके से हो रही चुनावी तालमेल की बात
हालांकि सुप्रीमो मायावती बीते पांच वर्षों में यह कई बार कह चुकी हैं कि कांग्रेस और भाजपा से बसपा कोई चुनावी तालमेल नहीं करेगी. बसपा अकेले ही हर चुनाव लड़ेगी. जितनी बार मायावती यह ऐलान करती हैं, यूपी में उतनी बार यह कहा जाता है कि मायावती चुनावी तालमेल करना चाहती हैं. अब यहीं वजह है कि इंडिया गठबंधन की प्रमुख पार्टी कांग्रेस और केंद्र की सत्ता में काबिज भाजपा दोनों ही बसपा से तालमेल के जुगाड़ में हैं. लेकिन बसपा सुप्रीमो मायावती किसका साथ चाहती हैं?
किस दल के साथ चुनावी तालमेल करने को इच्छुक हैं? इस सवाल का जवाब बसपा का कोई नेता देना नहीं चाहता. कभी मायावती के बेहद खास रहे जिसमें सतीश चंद्र मिश्र हो या मायावती के भतीजे आकाश आनंद ये सवाल सुनते ही चुप्पी साध लेते हैं. बसपा के नेताओं में इस संबंध में हो रही चर्चाओं के अनुसार, इस वक्त मायावती कांग्रेस या विपक्षी गठबंधन इंडिया को लेकर नर्म हैं. इसकी वजह यह बताई जा रही है कि भाजपा की अपेक्षा कांग्रेस या इंडिया गठबंधन के साथ चुनावी तालमेल करने में ज्यादा सीटें बसपा को मिल सकेगी. भाजपा उन्हे मात्र दस सीटें देगी तो इंडिया गठबंधन या कांग्रेस इससे ज्यादा सीटें उन्हे दे सकता है. इसलिए मायावती के लिए भाजपा के साथ जाना थोड़ा मुश्किल है. इसलिए अब गुपचुप तरीके से मायावती चुनावी तालमेल की अपनी योजना को आगे बढ़ा रही हैं.
भाजपा और कांग्रेस के नेता बसपा के संपर्क में
मायावती की चुनावी तालमेल करने को लेकर इस गाड़ी में कोई ब्रेक ना लगाने पाये, इसके लिए उन्होने पार्टी को इस संबंध में कोई बयान ना देने का निर्देश दिया हुआ है. कहा जा रहा है कि सबका साथ और विकास करने वाली भाजपा के बड़े नेता मायावती के हर कदम पर नजर जमाए हुए हैं. इसके साथ ही भाजपा एक तरफ यूपी में दलित मतदाताओं तक पहुंचने की कोशिश कर रही है. तो दूसरी तरफ वह मायावती को मनाने की कोशिश भी कर रही हैं.
भाजपा नेताओं का कहना है कि मायावती की निष्क्रियता की वजह से दलित वोट का बड़ा हिस्सा भाजपा के साथ जुड़ा है, इसलिए मायावती को नाराज नहीं करना है. भाजपा यह चाहती है कि मायावती अगर भाजपा से ना जुड़े तो वह अकेले ही चुनाव लड़ें. ऐसा होने पर बसपा के साथ ही विपक्ष को भी यूपी में नुकसान होगा. राजनीति की माहिर मायावती भाजपा की इस चल को समझती हैं. इसीलिए उन्होने कांग्रेस के साथ बातचीत का चैनल खोला हुआ है. बसपा से चुनावी तालमेल की उम्मीद में ही कांग्रेस ने अभी तक इमरान मसूद और दानिश अली को पार्टी में शामिल नहीं किया है.
कहा जा रहा है कि कांग्रेस के नेता फिलहाल मायावती से बातचीत करते हुए यूपी में अखिलेश यादव से भी चुनावी तालमेल की बातचीत कर रहे हैं. इसके साथ ही कांग्रेस यूपी में दलित, मुस्लिम, ब्राह्मण और जाट का समीकरण बना रही है. एक चर्चा यह भी हो रही है कि मायावती को इंडिया गठबंधन में शामिल किया जाए ताकि यूपी में बसपा, सपा, कांग्रेस और रालोद का गठबंधन बने. अब देखना यह है कि मायावती का चुनावी गठबंधन को लेकर क्या अंतिम फैसला होगा?
गठबंधन से तो बसपा को फायदा ही हुआ
मायावती यह कहती रही हैं कि उनकी पार्टी कोई गठबंधन नहीं करेंगी क्योंकि तालमेल करके चुनाव लड़ने पर बसपा का वोट तो सहयोगी पार्टियों को मिल जाता है लेकिन सहयोगी पार्टियों का वोट बसपा को नहीं मिलता है. मायावती का यह दावा तथ्यात्मक रूप से गलत है. बसपा ने जब भी तालमेल कर चुनाव लड़ा है तब उनकी पार्टी को फायदा हुआ है. चुनावी आंकड़ों से यह साबित हुआ है कि कई बार तो बसपा का वोट सहयोगी पार्टी को ट्रांसफर नहीं हुआ और सहयोगी पार्टियों का वोट उनको मिल गया. बीते लोकसभा चुनाव में ही हुआ था. तब बसपा सुप्रीमो मायावती ने समाजवादी पार्टी (सपा) से चुनाव तालमेल कर चुनाव लड़ा था.
बीते लोकसभा चुनाव में जब वे लड़ने उतरीं तो उनकी पार्टी का एक भी सांसद नहीं था, जबकि सपा के पांच सांसद थे. चुनाव में सपा तो पांच ही सीट पर रह गई, लेकिन बसपा जीरो से 10 सीट पर पहुंच गई. यह पहला मौका नहीं था, जब बसपा को गठबंधन से फायदा हुआ था. बसपा ने जब 1993 में चुनावी गठबंधन करके पहला विधानसभा चुनाव लड़ा था, तब भी उसे फायदा हुआ था. वर्ष 1993 में मुलायम सिंह यादव और कांशीराम ने गठबंधन बनाया था. इस गठबंधन के पहले बसपा को वर्ष 1991 के विधानसभा चुनाव में सिर्फ 12 सीटें मिली थीं.
फिर सपा के साथ चुनावी तालमेल करके वर्ष 1993 में विधानसभा का चुनाव लड़ने के बाद बसपा को 67 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. इसके बाद वर्ष 1996 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने कांग्रेस के साथ चुनावी तालमेल किया. तब बसपा 296 सीटों पर और कांग्रेस 126 सीटों पर चुनाव लड़ी. तब भी बसपा 67 सीटें जीती और उसका वोट बढ़ कर 19.64 फीसदी पहुंच गया. इन तीन चुनावी गठबंधन से साफ है कि हर बार जब बसपा तालमेल करके लड़ती है तो उसका फायदा होता है.
— राजेंद्र कुमार