अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा के बाद भाजपा के पक्ष में बनी हवा का रुख मोड़ने के लिए विपक्ष के पास कोई बड़ा मुद्दा नहीं

अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा के बाद भाजपा के पक्ष में बनी हवा का रुख मोड़ने के लिए विपक्ष के पास कोई बड़ा मुद्दा नहीं

बड़ा सवाल- अखिलेश के दम पर भाजपा को कितनी चुनौती दे पाएगा गठजोड़

लखनऊ, फ़रवरी 26 (TNA) राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष जयंत चौधरी के एऩडीए का दामन थामने के बाद आखिरकार बीते सप्ताह उत्तर प्रदेश में सपा और कांग्रेस के बीच सीटों के बंटवारे का एलान हो गया। इसी के साथ दूसरे राज्यों में भी इंडिया गठबंधन के सहयोगियों में सीट बंटवारे की उम्मीद बढ़ी है। हाल के राजनीतिक घटनाक्रम पर नजर डालें तो तमाम हिचकोलें खाने के बाद इंडिया गठबंधन की गाड़ी थोड़ी-बहुत पटरी पर लौटती दिख रही है। लेकिन बड़ा सवाल अब भी बना हुआ है कि उत्तर प्रदेश में सपा और कांग्रेस के बीच हुआ गठबंधन लोकसभा चुनाव में क्या कोई गुल खिला पाएगा?

क्या यह गठबंधन चुनाव में भाजपा के सामने ठहर पाएगा? दरअसल, अयोध्या में नवनिर्मित राम मंदिर में रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा के बाद भाजपा के पक्ष में हवा बनी है उसका रुख अपनी तरफ मोड़ना विपक्ष के लिए आसान नहीं होगा। ले-देकर भाजपा के हिंदुत्व और राम मंदिर के मुद्दे की काट के लिए विपक्ष जातीय जनगणना के मुद्दे को उठा रहा है। फिलहाल तो यह मुद्दा विपक्ष को बहुत फायदा पहुंचाता नहीं दिख रहा है। अलबत्ता चुनाव के नतीजे जरूर साबित करेंगे कि क्या मतदाताओं के बीच इस मुद्दे पर कोई अंडर करंट है?

यूपी में सपा-कांग्रेस के बीच लोकसभा चुनाव के लिए सीटों को लेकर सहमति बन जाने के बाद इंडिया गठबंधन अब विपक्षी एकजुटता का संदेश देने के लिए दिल्ली, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में भी सीट शेयरिंग के लिए पुरजोर कोशिश में जुटा है। लोकसभा सीटों के लिहाज से सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में सपा ने कांग्रेस को 17 सीटें दी हैं जबकि 62 सीटों पर वह खुद चुनाव लड़ेगी। एक सीट पर आजाद समाज पार्टी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद को दी जा सकती है।

एक तरह से देखा जाए तो लोकसभा चुनाव की उल्टी गिनती शुरू हो गई है। चुनाव आयोग को बस चुनाव कार्यक्रम का औपचारिक एलान करना है।लोकसभा चुनाव 2024 के लिए मैदान सजने लगा है। नरेंद्र मोदी सरकार को सत्ता से बेदखल करने के लिए पिछले साल नितीश कुमार की पहल पर बेंगलुरु में बना इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस (इंडिया) अब छिन्न-भिन्न हो गया है। विपक्ष का कुनबा जोड़ने वाले नितीश ही सबको झटका देकर एनडीए के पाले में चले गए। इधर यूपी में अखिलेश और जयंत इस गठबंधन मजबूत आधार माने जा रहे थे।

दादा चौ. चरण सिंह को भारत रत्न से सम्मानित किए जाने के एलान के बाद जयंत चौधरी भी एनडीए का हिस्सा बन गए। चूंकि चुनाव में अब ज्यादा वक्त नहीं बचा है इसलिए नए सिरे से खड़ा हुआ गठबंधन उत्तर प्रदेश में भाजपा को चुनौती देने में कितना कारगर होगा इसे लेकर संशय है।

गठबंधन का पूरा दारोमदार अखिलेश पर

भले ही राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन का नेतृत्व कांग्रेस कर रही हो लेकिन उत्तर प्रदेश में फिलहाल अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ही सबसे बड़े दल के तौर पर इसकी अगुवाई करेगी क्योंकि समाजवादी पार्टी को छोड़कर किसी भी दल का यूपी में कोई खास प्रभाव नहीं है। ऐसे में उत्तर प्रदेश में "इंडिया गठबंधन" का दारोमदार अखिलेश यादव पर ही रहेगा। बसपा सुप्रीमो मायावती का रुख अभी साफ नहीं है। इससे संकेत मिल रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में भाजपा को विपक्षी गठबंधन से कोई बहुत बड़ी चुनौती मिलने नहीं जा रही है।

अलबत्ता मायावती के अकेले चुनाव लड़ने से भाजपा को ही फायदा मिलने के आसार ज्यादा दिखाई दे रहे हैं। वैसे भी उत्तर प्रदेश में बीते कई चुनाव में भाजपा के खिलाफ गठबंधन के प्रयोग विफल ही रहे हैं। ऐसे में देखने वाली बात यह होगी कि अखिलेश अपने बूते उत्तर प्रदेश में इंडिया अलायंस को भाजपा के सामने कितनी मजबूती से खड़ा कर पाते हैं क्योंकि कांग्रेस का उत्तर प्रदेश में कोई आधार नहीं बचा है. वामपंथी दलों का भी एक तरह से उत्तर प्रदेश से सफाया हो गया है। रालोद के एनडीए के साथ जाने के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी गठबंधन की चुनौतियां बढ़ गई हैं।

विपक्ष के बिखराव से भाजपा को फायदा

दरअसल, उत्तर भारत के राज्यों में उत्तर प्रदेश ऐसा राज्य है जहां भाजपा सियासी तौर पर बहुत मजबूत है। गठबंधन और संसद सदस्यों के लिहाज से भी भाजपा की स्थिति काफी मजबूत है। यही नहीं भाजपा ने उत्तर प्रदेश में जातियों पर प्रभाव रखने वाली छोटी-छोटी क्षेत्रीय पार्टियों को भी अपने साथ जोड़ा है. जबकि विपक्ष बिखरा हुआ है। भले ही समाजवादी पार्टी-कांग्रेस का गठबंधन हो पर विपक्ष से ही बसपा और असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम जैसे दलों के अलग चुनाव लड़ने से सीधा फायदा भाजपा को ही होगा। कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश के मौजूदा सियासी समीकरणों पर निगाह डालें तो भाजपा का पलड़ा भारी लग रहा है.

यूपी में योगी विपक्ष की सबसे बड़ी चुनौती

अयोध्या में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के बाद यूं तो पूरे देश में हिंदुत्व की लहर हिलोरें मार रही है लेकिन यूपी में योगी आदित्यनाथ का चेहरा ही चुनाव में भाजपा की नैया पार लगाने के लिए काफी माना जा रहा है। उत्तर प्रदेश में भगवाधारी योगी आदित्यनाथ इंडिया गठबंधन के सामने बड़ी चुनौती हैं। इक्का-दुक्का राज्यों में भले ही गठबंधन के पक्ष में थोड़ा-बहुत माहौल बनता दिखाई देता हो लेकिन उत्तर प्रदेश में योगी फैक्टर के चलते फिलहाल हालात भाजपा के पक्ष में हैं। इस बीच जयंत चौधरी जैसे नेताओं के एऩडीए में आने से भाजपा को सियासी तौर पर मनोवैज्ञानिक बढ़त भी मिलती नजर आ रही है।

योगी के लगातार दूसरी बार सत्ता में लौटने के बाद से भाजपा और मजबूत हुई है। दूसरे दलों के मुकाबले जमीनी स्तर पर भाजपा संगठन भी खासा मजबूत है और सभी 80 लोकसभा सीटों को जीतने का लक्ष्य तय करके उसने चुनावी बिगुल फूंक दिया है। दूसरी तरफ लोकसभा चुनाव को लेकर विपक्ष की सक्रियता अभी कहीं नजर नहीं आ रही है। राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा उत्तर प्रदेश के कांग्रेसियों में जोश पैदा करने में नाकाम रही है। सीटों के बंटवारे को लेकर जिस तरह पहले जिस तरह सपा और कांग्रेस के बीच बयानबाजी हुई उससे भी लोगों के बीच इंडिया गठबंधन को लेकर अच्छा संदेश नहीं गया है।

सपा के लिए घाटे का सौदा रही गठबंधन की सियासत

हालांकि उत्तर प्रदेश में गठबंधन की राजनीति के कई प्रयोग हुए लेकिन कोई टिकाऊ नहीं रहा। जहां तक समाजवादी पार्टी का सवाल है तो उसके लिए गठबंधन की सियासत घाटे का सौदा ही साबित हुई है। पिछले तीन चुनावों में गठबंधनों का प्रयोग अखिलेश के लिए खासा निराशाजनक रहा है। 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस, 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा और फिर 2022 के विधानसभा चुनाव में रालोद-सुभासपा के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन विफल हो चुके हैं। ऐसे में अखिलेश इस बार फूंक-फूंक कर कदम बढ़ा रहे हैं।

2022 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने स्थानीय स्तर पर प्रभाव रखने वाली पांच छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन किया था। इनमें ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा), जयंत चौधरी का राष्ट्रीय लोक दल (रालोद), शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (प्रसपा), कृष्णा पटेल का अपना दल (कमेरावादी) और महान दल थे। यह गठजोड़ भी योगी आदित्यनाथ को सत्ता से हटाने में सफल नहीं हो पाया। समाजवादी पार्टी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन किया. 'बुआ-भतीजा जोड़ी' ने 2014 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन किया। 2014 में सपा ने पांच सीटें जीती थीं जबकि बसपा का खाता नहीं खुल पााया था।

2019 में बसपा 10 लोकसभा सीटें जीतने में सफल रही जबकि समाजवादी पार्टी सपा पांच सीटों पर ही सीमित रह गई। 2017 और 2019 में बड़ी बड़ी पार्टियों से गठबंधन के सफल न रहने के बाद समाजवादी पार्टी ने 2022 के विधानसभा चुनाव में छोटी पार्टियों को साधने की कोशिश लेकिन उसे झटका लगा। 2017 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले 64 सीटों का इजाफा तो हुआ लेकिन सत्ता हासिल करने का सपना पूरा नहीं हो सका। इस बार उत्तर प्रदेश में इंडिया गठबंधन की कमान अखिलेश के हाथ में है। आने वाले वक्त में देखने वाली बात यह होगी कि अखिलेश कांग्रेस के साथ मिलकर भाजपा के सामने तगड़ी चुनौती पेश करने के लिए किन मुद्दों और किस रणनीति के साथ आगे आते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व राजनैतिक विश्लेषक हैं)

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