ढह गया कला जगत का नीम का पेड़, नाटककार विलायत जाफरी का मुंबई में कोरोना से इंतक़ाल

ढह गया कला जगत का नीम का पेड़, नाटककार विलायत जाफरी का मुंबई में कोरोना से इंतक़ाल

वो कला जगत के नीम का पेड़ थे। कलाकारों, कलमकारों, कला प्रेमियों और लखनऊ दूरदर्शन के सर पर से नीम के पेड़ जैसा साया उठ गया। विख्यात रंगकर्मी, पटकथा-संवाद लेखक विलायत जाफरी का मुंबई में कोरोना से इंतेकाल हो गया। वो 85 बरस के थे।

लखनऊ दूरदर्शन में लम्बे दौर तक निदेशक रहे जाफरी ने लखनऊ रंगमंच को विस्तार और भव्यता प्रदान करने में बड़ा ताऊन (योगदान) दिया।

ऐतिहासिक रेजीडेंसी में जब उन्होनें लाइट एंड साउंड के भव्य शो किये तो थियेटर को एक नया प्रोफेशनल अंदाज मिला। एक नयी सूरत और ग्लेमरस रंग वाले लाइट एंड साउंड शो के जरिए थियेटर कलाकारों, तकनीशियन,प्रोडक्शन, मेकअप आर्टिस्ट, गायक-संगीतकारों और वाइस ओवर कलाकारों को नये अवसर मिले।

वाजिद अली शाह की नाट्य प्रस्तुतियों के सुखद इतिहास यादों तक सीमित था। उस दौर के बाद लखनऊ में उर्दू ड्रामा विलुप्त सा हो गया था, जिसे मरहूम जाफरी साहब ने जिन्दा किया। और शतरंज के खिलाड़ी जैसे तमाम उर्दू नाटकों से रंगमंच में उर्दू की मिठास घोली।

कम उम्र नन्हे दूरदर्शन को बेहतरीन परवरिश और तरबियत देने वालों में उनका नाम शामिल था। अस्सी के दशक में जब दूरदर्शन किशोरावस्था में था उस दौर में तमाम कलाविदों के साथ जाफरी साहब ने दूरदर्शन को पालपोस कर होनहार नौजवान बनाया था। विख्यात साहित्यिकार राही मासूम रज़ा के उपन्यास पर आधारित उनका धारावाहिक "नीम का पेड़" बहुत मक़बूल हुआ था। जिसकी पटकथा और प्रभावशाली संवाद जाफरी साहब ने लिखे थे। इसके अलावा बतौर निदेशक लखनऊ दूरदर्शन उनके कार्यकाल में बेहतरीन धारावाहिक बने, जो खूब सराहे गये।

संगीत नाटक अकादमी और उर्दू अकादमी सम्मान जैसे राज्य स्तर के सम्मान पाने वाले हरफनमौला कलाविद् विलायत जाफरी को पद्मश्री-पद्मभूषण जैसा कोई राष्ट्रीय सम्मान ना मिलना एक प्रश्न है। मरहूम जाफरी को लखनऊ की गंगा जमुनी तहजीब की मिसाल भी कहा जाता है। कला, साहित्य, थियेटर और एक आलाधिकारी होने के साथ वो मजहबी संकीर्णता और कटटरपंथी विचारों के खिलाफ लड़ते रहे और उन्होंने साम्प्रदायिक सौहार्द के लिए अपनी कला और कलम को हथियार बनाया। उनकी पत्नी कृष्णा और पुत्री रश्मि भी कला के प्रति समर्पित हैं।

वाजिद अली शाह की नाट्य प्रस्तुतियों के सुखद इतिहास यादों तक सीमित था। उस दौर के बाद लखनऊ में उर्दू ड्रामा विलुप्त सा हो गया था, जिसे मरहूम जाफरी साहब ने जिन्दा किया। और शतरंज के खिलाड़ी जैसे तमाम उर्दू नाटकों से रंगमंच में उर्दू की मिठास घोली।

मेरा सौभाग्य था जब मैंने कम उम्र में जाफरी साहब के लाइट एंड साउड में काम किया। वक्त की पंक्चुअलिटी को ना फॉलो करने पर उनकी मीठी-मीठी डांट भी खायी। उनके गुस्से के लहजे की नसीहतों मे भी मिठास थी।

लम्बे अर्से बाद जाफरी साहब से मेरे मुलाकात करीब आठ-दस बरस पहले आकाशवाणी लखनऊ मे हुई। (ये उनसे मेरी आखिरी मुलाकात थी।)

इस मुलाकात में मैंने उनसे जो सीखा उसे कभी नहीं भुलाया जा सकता। मेरी रिकार्डिंग थी, मैं स्टूडियो जा रहा था। जाफरी साहब को स्टूडियो के बाहर गार्ड ने रोक लिया था। तमाम सवाल पूछने लगा-कांट्रेक्ट कॉपी दिखाइये ? किसका प्रोग्राम है ? एंट्री कीजिए ....

और जाफरी साहब गार्ड के सामने सिर झुका कर उसके हर सवाल का जवाब बहुत नर्म लहजे मे दे रहे थे। देखकर मैं ताज्जुब मे पड़ गया। जो दूरदर्शन आकाशवाणी का पर्याय है उसे एक गार्ड रोके और तमाम सवाल करे !!

मैं गुस्से मे आकर गार्ड से उलझने लगा। जाफरी साहब ने मुझे रोका। बोले- इससे उलझो मत। इससे सीखो ! ये अपनी ड्यूटी के साथ इंसाफ कर रहा है।

खिराजे अक़ीदत जाफरी साहब

- नवेद शिकोह

(लेखक उत्तर प्रदेश के राज्य मान्यता प्राप्त जाने माने पत्रकार हैं)

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