"ज़रा सी आहट भी नहीं होती"
ज़रा सी आहट भी नहीं होती
तब सत्ता के गलियारों में
गुमनाम डाक्टरों की मौत
जब जगह भी नहीं पाती अखबारों में
फूंक कर परायों में सांसें
देते हैं घबरायों को दिलासे
क्यों करते हैं निष्काम सेवा
लाते हैं इतनी हिम्मत कहां से
पूछा कभी, क्यों रहते हैं अलग
वो परिवार से, त्यौहारों में
ज़रा सी आहट भी नहीं होती
तब सत्ता के गलियारों में
ओढ़ कर भारी कवच, चेहरों को छिपा
दुश्मन से लेते लोहा, कर्तव्य रहें है निभा
कब सामना हो जाए, क्रूर दुश्मन से
उन्हें तो सच में इतना भी नहीं पता
आधी अधूरी कच्ची नींदों से उठ कर
उजाला फैलाते हैं घोर अंधियारों में
ज़रा सी आहट भी नहीं होती
तब सत्ता के गलियारों में
वो भी आखिर इंसान थे
सेवा की भावना थी जिनके विचारों में
आज मत जाओ की जिद रोज़
लगती थी उनके परिवारों में
लड़े हैं, गिरे हैं,आखिर शहीद ही तो हुए हैं
फिर नाम क्यों नहीं है उनका सम्मान के हकदारों में
ज़रा सी आहट भी नहीं होती
तब सत्ता के गलियारों में
युद्ध जब सीमा पर घमासान हुआ था
गूंजा था नभ में जय जवान जय किसान का उदघोष
आज पुनः जारी है रिपु से भीषण रण
तुम ही रक्षक, जय चिकित्सक, कह कर
भर दो उन में नया जोश
या फिर कह दो, कि भरोसा उठ चुका है
आज ऐसे नारों से
ज़रा सी आहट भी नहीं होती
तब सत्ता के गलियारों में
- Brigadier Rajesh Verma/New Delhi