मृत्यु से भय कैसा???

मृत्यु से भय कैसा???

अज्ञानता भय उत्पन्न करती है जबकि ज्ञान से भय दूर होता है। इसलिए मृत्यु से क्या डरना? मृत्यु को जान लो। फिर इसके प्रति भय जाता रहेगा। क्या है मृत्यु? क्यों डरते हैं अज्ञानी मनुष्य इससे? जानना चाहते हो, लेकिन मौत को जानना चाहते हो तो पहले जीवन को जानना होगा। क्योंकि जब जीवन नहीं रहता है तो उसी अवस्था को मृत्यु कह दिया जाता है। वास्तव में यह इस पंच महाभूत शरीर से मुक्त हो जाने की घटना है। कौन मुक्त हो जाता है? वह जो ऊर्जा है जिसे आत्मा कहते हैं।

जो अखिल ब्रह्माण्डीय परम ऊर्जा का अंश है जिसे परमात्मा कहते हैं। मां के गर्भ में जब भ्रूण कुछ दिन (लगभग एक सप्ताह) का होता है तब आदि शक्ति के अंश के रूप में कुंडलिनी शक्ति आदि शिव के अंश आत्मा को लेकर उस पिंड में सिर के तालू भाग से प्रविष्ट होती हैं।

कुंडलिनी शक्ति आत्मा को हृदय में छोड़ते हुए रीढ़ की हड्डी के निचले किनारे पर स्थित मूलाधार चक्र के ठीक ऊपर स्थित त्रिकोणीय अस्थि में सर्प की तरह कुंडल मार कर अवस्थित हो जाती हैं। इसीलिए आध्यात्म में इसे कुंडलिनी शक्ति कहा गया है। हृदय में आत्मा के स्पर्श से स्पंदन की क्रिया शुरू हो जाती है और जीवन की नयी इकाई शुरू हो जाती है।

तब से वह जीवन श्वास के माध्यम से हमारे चारों ओर कण कण में व्याप्त परमात्मा से जुड़ा हुआ होता है। श्वास पर ध्यान दें। श्वास अंदर और बाहर होना नियमित है तो जीवन के लिए आवश्यक प्रक्रिया शरीर के अंदर संचालित होती रहती है। बस यही श्वास अंदर जाय और बाहर न आये तो मृत्यु और कभी बाहर जाय और अंदर न आये तो मृत्यु। यानि मां के गर्भ से शुरू होकर अंतिम श्वास तक हर सांस मृत्यु के ठीक पूर्व की अंतिम सांस हो सकती है। हो सकती है कि नहीं? और किसकी कौन सी सांस अंतिम होगी, कोई पता नहीं। है कि नहीं और होनी सबकी है इससे कोई इनकार नहीं कर सकता।

इस प्रकार पहली सांस से अंतिम सांस तक का समय ही जीवन है। हर श्वास इस जीवन यात्रा में अंतिम पड़ाव यानि मृत्यु की ओर बढ़ा एक क़दम है। इसलिए जब तक श्वास चल रहा है जीवन को भरपूर जीयो। हर श्वास पर परमात्मा के लिए कृतज्ञता का भाव हो कि आपकी इच्छा है तो सांस चल रही है अन्यथा इसी क्षण इस पृथ्वी पर हजारों लाखों लोग ऐसे होंगे जो इसी क्षण अंतिम श्वास ले रहे होंगे।

परमात्मा ने इतना सुंदर मौका दिया इस मानव तन में कि समय रहते ध्यान धारणा करते हुए परमपिता परमात्मा से पुनः योग हो जाय। परमात्मा से जुड़ कर यानि योग की स्थिति में शेष जीवन आनंदमय व्यतीत हो और जब ये शरीर छोड़ने की बारी आये जिसे मृत्यु कहते हैं तो सुखपूर्वक शरीर का त्याग करें। कलियुग के इस दौर में थोड़े अभ्यास से आनंदपूर्वक जीवन जीना और सुखपूर्वक शरीर त्याग करने की कला 'नवयोग' सिखाता है।

— राजीव तिवारी ‘बाबा’

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