पितृपक्ष में नये गहने, कपड़े, वाहन आदि क्यों नहीं खरीदते!!!

पितृपक्ष में नये गहने, कपड़े, वाहन आदि क्यों नहीं खरीदते!!!

दरअसल भारतीय सनातन आध्यात्मिक संस्कृति मूलतः प्रकृति पर आधारित रही है। प्रकृति में ही परमात्मा का वास है। हम सब भी इसी प्रकृति का अंश हैं। इस प्रकृति में लाखों साल पहले जब मानव जंगलजीवन से निकल कर सामाजिक जीवन में रूपांतरित हो रहा था तब के समय के समूह के नेतृत्व कर्ताओं ने प्रकृति के साथ समावेशी जीवन को मानव के लिए सरल सहज पाया और इसीलिए शायद प्रकृति से जुड़े अवयवों को देवी देवता आदि की संज्ञा दी और उनकी देखभाल संरक्षण के लिए तरीके बताए जो कालांतर में अज्ञानता के चलते कर्मकांड में तब्दील हो गये। जैसे भू जल पावक गगन समीरा गाय वन नदी सूर्य चंद्रादि ग्रहों को देव मानकर तमाम विधियों से पूजा अर्चना के विधि विधान।

इसी प्रकार उस समय मानव जीवन शैली भी प्रकृति पर आधारित शुरू की गई। दिन रात और ऋतुओं के आधार पर क्या खाएं न खाएं, क्या व्यवस्था करें न करें आदि। तो मुझे ऐसा लगा चिंतन में कि ये पितृपक्ष का जो समय है वह वर्षा ऋतु और बाढ़ का समय है। बाढ़ जलभराव आदि में वस्त्र आभूषण व अन्य संपदा के बह जाने अथवा खराब हो जाने की आशंका ज्यादा रहती है। तब के समय मौसमी आपदा से बचने को आज की तरह इतने संसाधन नहीं थे।

वाहन भी लकड़ी के थे और जानवर उन्हें खींचते थे। जिनके बह जाने की आशंका थी। लिहाजा समाज का नेतृत्व कर रहे लोगों ने इस सीजन में कुछ भी नया अथवा कीमती न खरीदने की बात कही होगी। चूंकि पितृपक्ष इसी समय पड़ता है तो इसे पितृों से जोड़ दिया गया। पितृों को भी देव की संज्ञा दी गई। बाद में सही जानकारी के अभाव में ये कर्मकांड बन गया। बाढ़ के समय में तमाम जीव जंतुओं और मनुष्य के सामने खाद्य संकट भी हो जाता है। इसीलिए पितृपक्ष में गरीबों और पशु पक्षियों आदि को सक्षम लोगों द्वारा पितृों के नाम पर भोजन कराने की परंपरा शुरू की गई। चूंकि उस समय ब्राह्मण ही समाज का निर्धन वर्ग था लिहाजा पितृपक्ष में ब्राह्मण को भोजन कराया जाने लगा।

आज के दौर में कोई भी वस्तु किसी भी समय खरीदी बेची जा सकती है। सुरक्षित रखने का उपाय अपनी बुद्धिमत्ता और क्षमतानुसार कर सकते हैं जबकि भोजन कितनों को भी किसी को कराएं ये भी आपकी चेतना और क्षमतानुसार है। जो भी करें सिर्फ इसलिए नहीं कि जो होता आ रहा है वही करना है। यही कर्मकांड बन जाता है।

परिवर्तन प्रकृति का नियम है। हजारों लाखों साल पहले जो होता था वो उस समय के लिए ठीक था मगर के मानव को इन कर्मकाण्डों के पीछे की वास्तविक चीज़ों को जानना चाहिए और अपनी सुविधानुसार उसमें परिवर्तन करना चाहिए। अपनी चेतना जागृत करें तद्नुसार अपने विवेक का इस्तेमाल करें। फिर जो भी करना हो करें बस इतना करें कि जो भी करें उससे आपको संतुष्टि हो। आध्यात्म की यही परिवर्तनकारी और प्रोगेसिव जीवन शैली नवयोग है।

- राजीव तिवारी ‘बाबा’

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