Vernacular
है अजब ये शह्र की ज़िन्दगी...
है अजब ये शह्र की ज़िन्दगी
यहां कौन किसकी ख़बर में है
मैं किसे कहूँ मुझे थाम लो
जिसे देखो अपने भंवर में है
वो जो मेरे दिल में मुक़ीम था
वो ख़ुदा तो कब का बिछड़ गया
ये जो हाथ अब है दुआ में फिर
न कोई भी हर्फ़ असर में है
तेरी ख़्वाहिशों के हैं बोझ जो
तू उतार उनको तो हंस ज़रा
तेरी ज़िन्दगी तो है चार दिन
तू कहाँ के लंबे सफ़र में है
यहाँ फ़र्श से वहां अर्श तक
है नहीं कहीं पे भी राहतें
उसे ढूंढ मत तू ख़लाओं में
जो सुकून अपने ही घर में है
(मुक़ीम- ठहरा हुआ, resident, हर्फ़- word, ख़लाओं- spaces)
- समीर 'लखनवी'
(समीर गुप्ता रेडियो 92.7 Big Fm में क्लस्टर प्रोग्रामिंग हेड हैं)