शेष नारायण सिंह :  देश ने एक खांटी और बेबाक पत्रकार खो दिया

शेष नारायण सिंह : देश ने एक खांटी और बेबाक पत्रकार खो दिया

नई दिल्ली || शेष नारायण सिंह जमीन से जुड़े खांटी पत्रकार थे और राजनीति की उनकी गहरी समझ थी। पत्रकारिता के माध्यम से ताउम्र वह आम आदमी और जनसरोकार के लिए कलम चलाते रहे। राजनीतिक विश्लेषक के तौर पर उनके कई लेख विभिन्न अखबारों में छपते रहे और वे टीवी चैनलों पर डिबेट पैनल में हिस्सा लेते रहे।

उन्होंने कभी भी अपने उसूलों से समझौता नहीं किया और वह निष्पक्ष एवं सटीक विश्लेषण के लिए जाने जाते रहे। यही वजह रही कि नौकरियां बदलती रही लेकिन वे नहीं बदले। टीवी डिबेट में भी जिन बातों से वह सहमत नहीं होते थे उसे बड़ी ही शालीनता से और साफगोई से कह जाते थे। उनको जानने वाले उनके इसी व्यवहार के कायल थे। उनका निधन हिंदी पत्रकारिता के लिए बड़ी क्षति है।

निसंदेह राजनैतिक मामलों में बेहतर समझ रखने वाले शीर्ष पत्रकारों में शेष जी का नाम भी गिना जाता है। अपनी धारदार लेखनी और बेबाक बयानी के लिए वह पत्रकारिता जगत में लंबे समय तक याद किए जाते रहेंगे।

हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी पर समान पकड़ रखने वाले शेष नारायण सिंह ने कई अखबारों में महत्वपूर्ण पद संभाले और लेखन लगातार जारी रखा। वे कई समाचार पत्रों में स्तंभ लेखन आखिरी वक्त तक करते रहे। वह अंतिम समय तक देशबंधु अखबार में राजनीतिक संपादक के तौर पर कार्यरत थे।

इसके साथ ही वह कई अन्य संस्थाओं से भी जुड़े हुए थे। उनको जानने वाले कहते हैं कि शेष जी अपनी जिंदगी में कभी समझौतावादी नहीं थे और धर्मनिरपेक्षता और उदार मूल्यों की रक्षा के लिए वे आखिरी समय तक अडिग रहे। उनके निधन पर जिस तरह से पत्रकार बिरादरी और राजनेताओं ने उन्हें याद किया यह उनकी लोकप्रियता का उदाहरण है। प्रधानमंत्री से लेकर तमाम बड़े नेताओं ने उन्हें याद किया और श्रद्धांजलि अर्पित की।

उन्होंने एक मध्यवर्गीय परिवार की तरह जीवन भर संघर्ष किया, लेकिन बच्चों की उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने कोई समझौता नहीं किया। तमाम संघर्षों के बाद उन्होंने ग्रेटर नोएडा में अपना मकान लिया था। वह आखिरी वक्त तक सार्वजनिक यातायात का ही इस्तेमाल करते रहे। फिटनेस के लिए वे हमेशा तत्पर रहते थे।

यहां तक कि हल्के व्यायाम के लिए वे जिम का भी इस्तेमाल करते थे। इस उम्र में भी पैदल चलने में उनका कोई मुकाबला नहीं कर सकता था। दिल्ली का हर कोना उन्हें याद था और उन्होंने उसे पैदल ही देखा था। जैसी पकड़ उनकी राजनीति पर थी वैसी ही पकड़ उनकी राजधानी पर थी।

शेष नायारण सिंह भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति की जीती जागती मिसाल थे। उनकी दो बेटियों के नाम शबनम और शबाना इस बात के गवाह हैं। वह उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर के रहने वाले थे। उनका जन्म 18 फरवरी 1951 को हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने गोरखपुर विश्वविद्यालय से 1973 में इतिहास से एमए किया। इसके बाद वह सुल्तानपुर के एक डिग्री कालेज में करीब दो वर्ष तक लेक्चरर रहे। 1976 में अपनी बड़ी बेटी के जन्म के अगले दिन उन्होंने इस्तीफा दे दिया।

उनका दृढ़ संकल्प था कि वह अपनी बेटी को अच्छी शिक्षा देंगे। 1976 से 1989 तक उन्होंने एक कंपनी में एक्जेक्यूटिव की नौकरी की लेकिन पत्रकारिता और लेखन उनसे नहीं छूटा। इस दौरान वह आल इंडिया रेडियो के लिए हिंदी वार्ता (टॉक सेक्शन) के लिए लगातार लिखते रहे। 1990 से 91 तक उन्होंने संडे आब्जर्वर के लिए नियमित लेखन किया।

1993 में वह पूरी तरीके से पत्रकारिता में लग गए। 1993 में उन्होंने राष्ट्रीय सहारा में एडिट पेज इंचार्ज की हैसियत से काम शुरू किया। सहारा में उन्होंने कई महत्वपूर्ण विषयों पर लेख लिखे। इसी दौरान 1994 से 1996 तक वह बीबीसी की हिंदी सेवा लिए फ्रीलांस के तौर पर आर्टिकल लिखते रहे। 1995 से 1996 तक उन्होंने एक साप्ताहिक पत्रिका में विशेष संवाददाता के पद पर कार्य किया। 1996 से 1998 तक उन्होंने हिंदी दैनिक जेवीजी टाइम्स में ब्यूरो चीफ का पद बखूबी संभाला।

1998 से 2004 तक वह एनडीटीवी में डेप्यूटी न्यूज एडिटर के पद पर कार्य किया। 2005 से 2008 तक वह जागरण इंस्टीट्यूट आफ मास कम्युनिकेशन में प्रोफेसर रहे। 2009 से 2011 तक वह शहाफत में एसोसिएट एडिटर रहे। इसके बाद 2011 से आखिरी वक्त तक वह देशबंधु में राजनीतिक संपादक के तौर पर कार्यरत रहे।

वह एक प्रतिभावान पत्रकार थे, जो हमेशा पत्रकारिता में नए और आधुनिक प्रयोंगों को अपनाते रहे। यहां तक कि 70 साल के होने के बावजूद वह फेसबुक और टि्वटर के माध्यम से भी लोगों से जुड़े रहते थे। उनका ये मानना था कि अब पत्रकारिता में नया मोड़ आ रहा है और वे उसका पूरे उल्लास से स्वागत कर रहे थे। पोलस्ट्रेट से उनका जुड़ना भी नयी ऊर्जा की पीढ़ी का उत्साहवर्धन करने का एक तरीक़ा था।

कोरोना ने वरिष्ठ पत्रकार, राजनीतिक विश्लेषक और स्तंभकार शेष नारायण सिंह को 7 मई 2021 को हमसे छीन लिया। प्लाज्मा सहित कई विधियों से उनकी जीवन रक्षा की कोशिश की गई लेकिन सब बेकार साबित हुई।

कोरोना संक्रमण से ग्रसित होने के बाद ग्रेटर नोएडा के राजकीय आयुर्विज्ञान संस्थान (जिम्स) अस्पताल में उनका कई दिनों से इलाज चल रहा था। उपचार के दौरान उनकी हालत में सुधार हो रहा था और कुछ दिन पहले ही उनका प्लाज्मा पद्धति से इलाज किया गया था, लेकिन कोरोना की जंग वह जीत नहीं सके और उनका निधन हो गया। उनकी उम्र 70 वर्ष थी।

उनके निधन से पूरे पत्रकारिता जगत में शोक की लहर दौड़ गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव सहित कई बड़े नेताओं, अधिकारियों और वरिष्ठ पत्रकारों ने उन्हें श्रद्धांजलि दी।

(लेखक पत्रकारिता से लंबे समय से जुड़े हैं और समाचार एजेंसी आईएएनएस हिंदी के संपादक रहे हैं, विचार उनके निजी हैं)

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