असमंजसः यूक्रेन युद्ध एवं भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया

असमंजसः यूक्रेन युद्ध एवं भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया

इलेक्ट्रॉनिक एवं सोशल मीडिया के यूक्रेन संबंधित "ताजा तरीन", "एक्सक्लूसिव", "स्वयं में पूर्ण" जैसे शीर्षकों से, कम्प्यूटर-गेम सरीखे दृश्य एवं कथानको से प्रायः ऊब चुके भारतीय दर्शकों के लिए अब कोई कौतूहल बचा नहीं है । इसी संदर्भ में भारत सरकार द्वारा युद्ध एवं राजनयिक परिप्रेक्ष्य में हो रही अनवरत रिपोर्टिंग में आवश्यक संयम बरतने का परामर्श दिया गया है। हालांकि संचार माध्यमों ने इसे अपनी स्वतंत्रता में हस्तक्षेप से सीधे जोड़ने में जरा भी देरी नहीं दिखाई ।

इस बहस से इतर, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में सामरिक एवं युद्ध संबंधी परिचर्चाओं एवं रिपोर्टिंग के स्तर के बारे में गहनता से विचार करने की जरूरत है । यदि परिचर्चाएं और उसमें शामिल प्रतिभागियों की ओर देखें तो एक बात स्पष्ट है कि पूर्व सैन्य अधिकारी या राजनयिक होना, गुणवत्ता एवं कम समय में सारगर्भित विश्लेषण की कुशलता की गारंटी नहीं है।

स्थिति तब और भी हास्यास्पद हो जाती है जब सर्वज्ञानी एंकर, इस प्रकार के सतही सवाल जवाब करने लगते हैं जो विषय की गंभीरता को कम करते हैं। रक्षा विशेषज्ञों के बारे में एक और उल्लेखनीय बात यह है कि क्षेत्रीय एवं भाषाई चैनलों पर किसी भी सेवानिवृत्त सैन्य कर्मी (जरूरी नहीं कि वह कोई उच्चाधिकारी या अधिकारी रहा हो) को बैठाकर, अविरल प्रवाह जैसी निरंतरता न केवल विषय वस्तु की सार्थकता और गंभीरता को समाप्त प्राय कर देती है बल्कि दर्शकों की बौद्धिक क्षमता पर भी प्रश्नचिन्ह लगा देती है ।

यदि यूक्रेन युद्ध के शुरुआती दौर के टीवी पर प्रायोजित परिचर्चा और उनके रक्षा विशेषज्ञों के विश्लेषणों का ध्यान करें तो याद होगा कि ऐसी सारी भविष्यवाणियां गलत साबित हुई हैं जिनके अनुसार 10 या 15 दिनों में यूक्रेन को घुटने टेक देना चाहिए था।

इसी प्रकार पश्चिमी देशों द्वारा नियंत्रित सूचना तंत्र, एकतरफा जानकारी फैलाने का दोषी घोषित हो चुका है । इसलिए युद्ध संबंधी समाचारों की विश्वसनीयता सवालों के घेरे में है। इन परिस्थितियों में चैनल के संपादकीय स्तर पर सैन्य संचालन में प्रयुक्त शब्दावली और संबंधित जानकारियों का अभाव उनकी साख को कम कर देता है ।

उचित तो यह होगा कि मीडिया -संकुल एवं टीवी चैनलों में रक्षा क्षेत्र से कुछ जानकार, स्थाई परामर्शदाता के रूप में रखे जाएं जो इस संबंध में तकनीकी सलाह के साथ परिचर्चा से संबंधित विषय का ध्यान रखते हुए, उपयुक्त विशेषज्ञों का चुनाव कर एक पैनल बना सकें । इस व्यवस्था से संपादकीय टीम की, युद्ध के रिपोर्ताज में तकनीकी शुद्धता आएगी एवं राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय दर्शकों की दर्शको की अभिरुचि का भी पोषण हो सकेगा।

इस व्यवस्था का एक और लाभ यह होगा कि चैनलों में उन असमंजस स्थितियों से बचा जा सकेगा जो प्रोटोकॉल एवं संवेदनशीलता की दृष्टि से अनिवार्य है। उदाहरण -स्वरूप, कुछ दृष्टांत, जैसे कि अभी हाल में दिखाई दिए जहां एक राष्ट्रीय हिंदी टीवी चैनल पर देश के नए सेना प्रमुख की घोषणा की सूचना प्रसारित करते समय, रैंक में गड़बड़ी एवं उनकी सैन्य- सेवा की पृष्ठभूमि को कमतर कराने वाला शीर्षक चलाया गया। इसी प्रकार, कतिपय क्षेत्रीय चैनलों पर रक्षा विशेषज्ञ के नाम पर ऐसे सदस्यों को बैठा दिया जाता है जिनकी पृष्ठभूमि, उनमे विषय- वस्तु में गहन अनुसंधान जैसे अनिवार्य या अपेक्षित गुणों का अभाव रहता है। यह परिस्थितियां, सुधी दर्शकों को असहज करने वाली बन जाती हैं।

गुणवत्ता, विशेषज्ञता एवं विश्वसनीयता के अपेक्षित स्तर या उससे भी एकाध पायदान ऊपर ले जाने का एक और माध्यम है, युद्ध संवाददाताओं की सेवा लेना। यद्यपि इस व्यवस्था में अनेक कठिनाइयां हैं और छोटे मोटे चैनल्स की पहुंच के बाहर है परंतु, स्वतंत्र संवाददाताओं की सेवाएं, उनकी कीमत अदा करने पर उपलब्ध है। कुछ राष्ट्रीय चैनलों ने अपने संवाददाता यूक्रेन भेजें भी हैं, परंतु इन अनुभवहीन संवाददाताओं द्वारा, चुनावी कवरेज और रण-क्षेत्र की कवरेज का अंतर साफ दिखाई देता है। इससे चैनलों की आत्म- संतुष्टि भले हो जाए परंतु गुणवत्ता एवं सारगर्भिता अभी भी कोसों दूर है।

इन कमियों के बावजूद इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का स्वतः अनुशासित होना नितांत आवश्यक हो गया है ।यूक्रेन युद्ध के तथाकथित फुटेज को टाइमपास के तौर पर, लड़ाकू विमानों एवं मिसाइलों की ध्वंसक क्षमता को लगातार दिखाते रहने से दर्शकों का कितना लाभ हो रहा है, पता नहीं, परंतु इस मानव त्रासदी से मनोरंजन होना, कुछ हद तक सही हो सकता है। हालांकि इस प्रकार के कंप्यूटर गेम भी कितनी देर तक दर्शकों को बांधे रख सकते हैं, कहना मुश्किल है।

यदि यही चैनल ऐसे लगातार, अर्थहीन प्रसारणो के बजाय सारगर्भित, उन्माद रहित परिचर्चा समेत युद्ध की विभीषिका एवं उसको रोकने के लिए, क्षेत्रीय एवं विश्व स्तरीय प्रयासों के बारे में जनमानस को जागृत करें और उनसे समाज की सुप्त चेतना को जोड़ सके तो ज्यादा श्रेयस्कर होगा।

— बसंत नारायण

(लेखक अवकाश प्राप्त सैन्य अधिकारी हैं )

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