ब्राह्मणों को मुख्यधारा में लाये सतीश चंद्र मिश्रा

ब्राह्मणों को मुख्यधारा में लाये सतीश चंद्र मिश्रा

आजादी के बाद कांग्रेस शासित राज्यों में ब्राह्मणों और रजवाड़ों का बोलबाला रहा। लेकिन 1989 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वी० पी० सिंह द्वारा मंडल कमीशन लागू करने के बाद पिछड़ों के वर्चस्व से ब्राह्मण सियासत से गायब हो गए थे। प्रधान से लेकर मुख्यमंत्री तक की कुर्सी पर पिछड़ों का दबदबा कायम हो गया।

1989 के बाद हुए विधानसभा और लोकसभा के चुनाव में ब्राह्मण प्रतिनिधित्व लगभग शून्यता की तरफ बढ़ गया था। अयोध्या आंदोलन में बढ़चढ़ कर भागीदार बनने वाले ब्राह्मण के कार्यों का श्रेय पिछड़ी जाति के लोध नेता कल्याण सिंह को मिल गयी। 1993 में मुलायम और कांशीराम के मिलने से जातीय गठबंधन इतना ताकतवर हुआ कि ब्राह्मण को कांग्रेस और भाजपा जैसे दल प्रत्याशी बनाने से कतराने लगे।

उत्तर प्रदेश में विधानसभा और लोकसभा चुनाव में एक ऐसी स्थिति बन गयी कि ब्राह्मण प्रत्याशी ही चुनाव में अछूत जैसे बन गए। उनकी तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया और प्रत्याशी के नाम पर भाजपा कांग्रेस ने भी 25-30 और अधिकतम 40 तक की विधानसभा चुनाव में टिकट दिए। शासन से लेकर जनपदों में जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक जैसे महत्वपूर्ण पदों पर काबिज रहने वाले ब्राह्मण अधिकारी 1989 के बाद 2007 तक गिने-चुने पदों पर रह गए।

ब्राह्मणों को मुख्यधारा में लाये सतीश चंद्र मिश्रा योग्य से योग्य ब्राह्मण अधिकारी क्षमता के अनुसार तैनाती पाने से वंचित रहे। ऐसा लग रहा था कि ब्राह्मण हमेशा के लिए सियासत की मुख्यधारा से गायब हो गया। स्थितियां ऐसी बन गयी थी कि विधानसभा, लोकसभा विधान परिषद एवं राज्यसभा जैसे चुनाव में किसी भी दल ने ब्राह्मण को महत्व नहीं दिया। 14% आबादी वाला ब्राह्मण अलग-थलग रह गया। जबकि 2% लोध के पिछड़ों के नेता कल्याण सिंह भाजपा में मुख्यमंत्री बने। पिछड़ों के सर्वमान्य नेता मुलायम सिंह भी मुख्यमंत्री बने और मायावती भी भाजपा के समर्थन से 3 बार मुख्यमंत्री बनी।

नारायण दत्त तिवारी उत्तर प्रदेश में 1989 में आख़री ब्राह्मण मुख्यमंत्री थे। सतीश चंद्र मिश्रा ने मायावती के साथ जुड़ कर उपेक्षित ब्राह्मणों को 80 से अधिक टिकट दिलाकर 2007 में मुख्यधारा में लाने का कार्य किया और ब्राह्मण दलित प्रयोग के साथ मुस्लिमों के समर्थन से मायावती को पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने के लिए 206 सीटें और 30% से अधिक मत मिले।

सतीश चंद्र मिश्रा का यह प्रयोग सफल रहा और 80 में से 62 ब्राह्मण विधायक चुने गए जो 1980 विधानसभा चुनाव के बाद सबसे अधिक चुने गए ब्राह्मणों की संख्या में शामिल है। 1980 एक ऐसा विधानसभा चुनाव था जिसमे 425 विधायकों (उत्तराखंड सहित) की संख्या में 89 ब्राह्मण विधायक चुने गए और इन्हीं ब्राह्मण विधायकों के दबाव में वी० पी० सिंह के बाद श्रीपति मिश्रा मुख्यमंत्री बनाये गए थे। कांग्रेस में प्रदेश की सियासत ब्राह्मण और राजपूत मुख्यमंत्री के बीच बटती रही। श्रीपति मिश्रा के बाद वीर बहादुर और एन० डी० तिवारी मुख्यमंत्री बनते रहे। कांग्रेस के अंतिम मुख्यमंत्री एन० डी० तिवारी थे।

1989 के बाद 33 साल होने जा रहे हैं। अभी तक कोई ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं बना और न अभी बनने की सम्भावना भी दिख रही है। भाजपा ने ब्राह्मण के भावनाओं का हिंदुत्व के नाम पर शोषण किया लेकिन उन्हें सत्ता में भागीदारी नहीं दी। कलराज मिश्रा जैसा कद्दावर नेता को कल्याण सिंह ने इतना अपमानित किया कि सदन में रोते हुए इस्तीफे की पेशकश तक करनी पड़ी। मोदी के नेतृत्व में अति पिछड़ों की विशेष भागीदारी और ब्राह्मणों की एकजुटता ने भाजपा को सियासत की फर्श से केंद्र और प्रदेश में अर्श तक पंहुचा दिया। लेकिन ब्राह्मण और अति पिछड़े दोनों अर्श से फर्श पर आ गए।

2007 के बाद 2022 एक ऐसा विधानसभा चुनाव है जिसमे ब्राह्मणों के वोट बैंक को लेकर सियासत तेज है और इसका भी श्रेय सतीश चंद्र मिश्रा को जाता है। सतीश चन्द्र मिश्रा की अगुवाई में 2022 के चुनाव को लेकर बसपा अगर ब्राह्मण सम्मेलन शुरू नहीं करती तो शायद भाजपा ने 2017 में जितने ब्राह्मणों को टिकट दिया था, योगी आदित्यनाथ के दवाब में ब्राह्मणों को 2022 में इतने टिकट भी नहीं मिलते।

लेकिन सतीश चंद्र मिश्रा ने एक बार फिर से 14% ब्राह्मणों के मान सम्मान और स्वाभिमान को जगा करके भाजपा और सपा के सामने चुनौती खड़ी कर दी और यह निश्चित है कि दोनों दलों में अधिक से अधिक ब्राह्मणों को टिकट देना मजबूरी हो गयी है। ब्राह्मणों की माउथ पब्लिसिटी की क्षमता भाजपा और अखिलेश दोनों पर भारी पड़ेगी।

सपा मुखिया अखिलेश यादव भी पार्टी से जुड़े ब्राह्मण नेताओं को परशुराम की मूर्ति लगाने के नाम पर सियासत करा रहे है लेकिन अगर 2022 विधानसभा चुनाव में टिकटों में उचित प्रतिनिधित्व नहीं दिया तो भगवान् परशुराम की मूर्ति की ऊँचायी चाहे जितनी बड़ी करवा ले, ब्राह्मणों का वोट मिलना आसान नहीं होगा। भारतीय जनता पार्टी में भी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर खुले रूप से जातीय सियासत करने का आरोप लग रहा है। शासन प्रशासन और मंत्रिमंडल में इसकी झलक भी दिखाई दे रही है।

यह अलग बात है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता अभी भी विपक्षी नेताओं की तुलना में बहुत अधिक है और अंत में 2022 विधानसभा चुनाव मोदी के ही एजेंडे पर होगा, यह भाजपा की सबसे बड़ी ताकत है।

इसका लाभ बसपा को मिल रहा है क्योंकि जब ब्राह्मण सम्मेलन में सतीश मिश्रा उत्पीड़ित ब्राह्मणों की संख्या को गिनाते है तो योगी आदित्यनाथ के कार्य के परसेप्शन को लेकर ब्राह्मणों की जन भावनाएं मोदी के नहीं लेकिन योगी के खिलाफ जबरदस्त रूप से बनती जा रही है।

ऐसी स्थिति बन गयी है कि मोदी कितनी भी योजनाओं के माध्यम से एक-एक मतदाताओं को व्यक्तिगत लाभ पंहुचा दे, पिछड़ों के नेता केशव मौर्या को एवं अन्य पिछड़ी जातियों तथा ब्राह्मणों को 2022 में टिकट बटवारें में उचित प्रतिनिधित्व एवं सम्मान नहीं दिया गया तो सर्वे रिपोर्ट कुछ भी कहे लेकिन जमीनी हक़ीक़त भाजपा के बहुत अनुकूल फिलहाल अभी तक नहीं है।

यह अलग बात है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता अभी भी विपक्षी नेताओं की तुलना में बहुत अधिक है और अंत में 2022 विधानसभा चुनाव मोदी के ही एजेंडे पर होगा, यह भाजपा की सबसे बड़ी ताकत है।

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