ज़िंदगी को मोबाइल फ़ोन, भाग दौड़ और तेज रफ़्तार ने कार दिया है बेरंग!
कुछ दिनों से सोच रही थी कुछ लिखने को पर वक्त साथ नहीं दे रहा था । समाज के बदलाव को लेकर मन जैसे बैठ सा गया है ।हर दिन कहीं ना कहीं कुछ देखने को मिल ही जाता है । लोगों की बोली में भी काफ़ी फर्क देखने को मिलता है आजकल। तेज रफ्तार से चलने वाली यह दुनिया कहीं ना कहीं बहुत उलझी हुई है ।
एक छोटे से खिलौने -मोबाइल फ़ोन, की अहमियत पास बैठने वाले अपनों से कहीं ज़्यादा हो चुकी है ।।काम, क्रोध, लोभ ,मोह के साथ फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर, ह्वाट्सऐप जैसे कुछ और आधुनिक, कलयुगी दानव जुड़ गये हैं । कितना भी कोशिश करें इंसान अपने आप को कहाँ बचा पा रहा है। सुबह से लेकर शाम तक इसी की मोह में ही फँसा रहता है । अब घर वालों से बातचीत ना के बराबर हो चुकी है । किस्से कहानियाँ तो जैसे कहीं दूर जाकर छिप गए हैं ।
उन्हें कोई न कहना ना सुनना चाहता है । और जिन लोगों को यह खिलौना चलाना नहीं आता वह बोरिंग और मूर्ख कहलाते हैं ।अजीब चक्कर में इंसान फँस गया है ।आजकल लोग बातें कम और टेक्स्ट ज़्यादा करने लगें हैं । लोग एक कमरे से दूसरे कमरे से उठकर जाने के बजाए कॉल करना पसंद करते हैं । कमरे जितने ज़्यादा उतनी ही दिलों में दूरियाँ हो चली हैं ।
सबको प्राइवेसी चाहिए ।आप किसी का फोन का पासवर्ड माँगकर देखिए जैसे कोई गुनाह कर बैठेंगे । सिर्फ़ एक आध कोई होगा घर में जिसका फोन पूरी फ़ैमिली जब चाहो तब उठा के ले सकता है। अजीब है मगर यही सच है । इंसान भी कमाल है, फिल्मों में दुख भरी सीन देखकर तो रो पड़ता है मगर असल ज़िन्देगी में अपनों का दुख ड्रामा लगता है । सारे काइंडनेस और लॉयल्टी सोसाइटी के लोगों के लिए, जो आपका साथ निभाता है उम्र भर उनको समझना तो दूर की बात सीधे मुँह बात करना भी लोग भूल चुके हैं ।
इस बैलेंस के बारे में सोचने के लिए लोगों के पास वक्त कहाँ है । कहते हैं जब आप कोई गलती करते हैं, तो आपको उसके बारे में केवल तीन चीजें करनी चाहिए : उसे स्वीकार करें, उससे सीखें और उसे न दोहराएँ ! आज कल यह भी बदल चुका हे । गलती करने पर इंसान नहीं सोच रहा है । बेधड़क करता है, उसे कैसे सही साबित करना है, उसमें पूरे जोरों की कोशिश रहती है और करने के बाद शिकन तक नहीं आती चेहरे पर !
बदलने का तो सवाल ही नहीं उठता जब गलती मानने को तैयार ही नहीं है कोई । अफ़सोस चाहें इसके लिए कितने अपनों को छोड़ना पड़े ! बहुत प्रैक्टिकल हो चला है इंसान । सिर्फ औरों को इस्तेमाल करने का ही सोचता हे । रही बात इसे कैसे बदला जाये? सिर्फ अपनी ज़िन्देगी का रंग ढंग थोड़ा बदलकर और एक छोटी चीज़ जिसे इमोशन कहा जाता है वह थोड़ा अपने ज़हन में जगह देकर शायद चीज़ें अभी भी सुधरी जा सकती हैं। थोड़ा अटपटा सा है मगर बहुत कठिन नहीं है। कोशिश करके देखियेगा, शायद बची हुई ज़िंदगी बेरंग से रंगभरी हो जाए, नहीं तो जो चल रहा है, सो तो चल ही रहा है!
— सागरिका महापात्रा