क्या चुनाव से पहले ही उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी ने अवसर खो दिया है?

क्या चुनाव से पहले ही उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी ने अवसर खो दिया है?

1989 में 32 वर्ष पहले सत्ता से बाहर हुई कांग्रेस प्रियंका गाँधी के नेतृत्व में एक बार फिर अवसर खोती नज़र आ रही है। प्रियंका गाँधी को लेकर जनता एवं राजनीतिक दलों के बीच में एक ऐसा माहौल बना था कि प्रियंका अपनी दादी इन्दिरा गाँधी की तरह दिखती और राजनीतिक सोच रखती है जैसा कि राहुल गाँधी के पास नहीं है। लेकिन यह भ्रम अब टूट गया है। आज राहुल और प्रियंका के तुलना में राहुल हर दृष्टिकोण से राजनीतिक रूप को लेकर बहुत भारी है। प्रियंका की TRP केवल महिला होना, लच्छेदार भाषण देना और मीठी मीठी बातें करने तक ही सीमित है। वास्तविक रूप से जो विपक्ष में राजनीतिक संघर्ष, सियासत और तेवर तथा मेहनत के लक्षण होना चाहिये, जो केवल सिफर है।

2019 में जब प्रियंका को उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया गया था तो लग रहा था कि कांग्रेस अब अपनी खोई हुई जमीन को उत्तर प्रदेश में वापस लाने का पूरा प्रयास करने जा रही है। प्रभारी बनाये जाने के बाद प्रियंका गाँधी जिस समय उत्तर प्रदेश की सीमा में पहली बार आयीं थी, जनता और कांग्रेसियों में जबरदस्त उत्साह था। बसपा, सपा और भाजपा में उपेक्षा झेल रही मीडिया ने भी प्रियंका गाँधी के दौरे का केवल सकारात्मक पहलू ही बढ़ चढ़ कर दिखाया और उनकी कमजोरियों को छुपा का एक तरफ़ा कांग्रेस की मदद की।

प्रियंका प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय पर लगातार मीटिंग की, देर रात तक कार्यकर्ताओं से रूबरू हुई। उससे भी एक बड़ा सकारात्मक सोच प्रियंका को लेकर जनता के बीच बनी। लेकिन इसके बाद लोकसभा चुनाव में प्रभारी के रूप में अपनी पारिवारिक सीट अमेठी खोने और मात्र एक सीट पर ही सफलता मिलने से प्रियंका के चुनावी रणनीति पर सवाल उठे लेकिन बार बार प्रियंका का यह कहना कि 19 नहीं हम 2022 की तैयारी कर रहे है इस पर जनता ने एक बार फिर आशा भरी निगाहों से देखा था लेकिन कार्यकर्त्ता एवं जनता की आशाओं पर भी 2022 में अभी तक फिलहाल प्रियंका गाँधी खरी उतरती नहीं दिख रही हैं। 2019 से लेकर अभी तक जब मात्र 7 महीने में उत्तर प्रदेश में चुनाव होने जा रहे हैं प्रियंका गाँधी के क्रियाकलाप, राजनीतिक सोच, ट्विटर तक सीमित रहना यह आचरण बता रहा है कि 2022 का अवसर प्रियंका खो रही हैं।

प्रियंका के नेतृत्व में यह पहला अवसर था कि उत्तर प्रदेश में प्रभारी नहीं बल्कि अध्यक्ष की भूमिका में मुख्यमंत्री प्रत्याशी के रूप में अपने तेवर के साथ लगातार कड़ी मेहनत करती तो निश्चित मानिये कि 2022 में प्रियंका की संभावनाएं बहुत अधिक बढ़ जाती लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। गत 3 वर्षों में प्रदेश प्रभारी के रूप में केवल 2-4 घटनाक्रम में मौके पर गयी और नाव से यात्रा की, सोनभद्र में पीड़ितों से मिली और हाथरस घटना में सक्रिय दिखी लेकिन इसे केवल एक राजनीतिक पर्यटन ही कहा जा सकता है। फ़ुल टाइम की सियासत नहीं कही जा सकती है।

लखनऊ में मकान लिया और कोरोना संकट में मजदूरों की मदद करने की सकारात्मक पहल की शुरुआत की लेकिन यह सब इसलिए फेल हो गए क्योंकि उत्तर प्रदेश में प्रियंका ने वरिष्ठ नेताओं का अपमान किया और प्रदेश की कमान लल्लू को दी जो नाम और काम दोनों से लल्लू साबित हुए। यह सही है कि लल्लू एक संघर्षशील नेता है लेकिन उनका कद और सोच ऐसा नहीं है कि वह उत्तर प्रदेश में कांग्रेस जैसी पार्टी का नेतृत्व कर सके। यह बात ज़रूर है कि लल्लू कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में संगठन को मजबूत भले ही न कर पाए हो लेकिन रविदास मल्होत्रा की तरह जेल जाने का रिकॉर्ड ज़रूर बनाया है।

प्रियंका की पसंद लल्लू और उनकी नापसंद उत्तर प्रदेश के वह वरिष्ठ लीडर जिन्होंने अपने जीवन के 40- 50-60 साल कांग्रेस और गाँधी परिवार की भक्ति में गुजार दिया, ऐसे नेताओं की उपेक्षा रही है। उपेक्षा के कारण वरिष्ठतम नेता काफी अपमानित रहे। आज भी वरिष्ठ नेताओं की भारी भरकम टीम है जिनका सहयोग एवं आशीर्वाद लेकर प्रियंका संघर्षशील तेवर अपना कर कांग्रेस को मजबूत करने में महत्वपूर्ण योगदान दे सकती हैं।

सत्ता से हटने के बाद भी उत्तर प्रदेश कांग्रेस पार्टी कार्यालय हमेशा ही राजनीतिक का केंद्र बिंदु और मीडिया का चहेता बना रहा है क्योकि प्रदेश अध्यक्ष के पद पर 1989 के बाद भी कद्दावर नेता नारायण दत्त तिवारी, महावीर प्रसाद, जीतेन्द्र प्रसाद, सलमान खुर्शीद, अरुण कुमार सिंह मुन्ना, निर्मल खत्री, राज बब्बर जैसे वरिष्ठम नेता रहे है।

अरुण कुमार सिंह मुन्ना और निर्मल खत्री दो ऐसे प्रदेश अध्यक्ष रहे जिनके कार्यकाल में संगठन ढांचा मजबूत हुआ। वर्तमान में उत्तर प्रदेश में राजनीतिक हालात को देखते हुए प्रियंका गाँधी को अध्यक्ष के रूप में नेतृत्व करते हुए वरिष्ठ नेता प्रमोद तिवारी, पी एल पुनिया, सलमान खुर्शीद, राजेश मिश्रा सहित उन वरिष्ठम कांग्रेसी नेताओं की टीम बना कर उनके अनुभव का लाभ लेते हुए ज़मीनी स्तर पर संघर्ष करने की ज़रूरत है लेकिन ऐसा होगा नहीं।

उत्तर प्रदेश में प्रियंका ने वरिष्ठ नेताओं का अपमान किया और प्रदेश की कमान लल्लू को दी जो नाम और काम दोनों से लल्लू साबित हुए। यह सही है कि लल्लू एक संघर्षशील नेता है लेकिन उनका कद और सोच ऐसा नहीं है कि वह उत्तर प्रदेश में कांग्रेस जैसी पार्टी का नेतृत्व कर सके।

अभी तक जो हालात उत्तर प्रदेश में बन रहे हैं उसमे स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि कांग्रेस प्रियंका के नेतृत्व में अवसर खोती जा रही है। इसके पहले भी गठबंधन और समर्थन के कारण कांग्रेस 32 वर्षों में कई अवसर खोये है जिनमें मुलायम सरकार को समर्थन, बसपा और सपा के साथ चुनावी गठबंधन ऐसे तमाम घटनाक्रम जिम्मेदार हैं। जिसमें कांग्रेस ने अवसर खोये हैं। उम्मीद की किरण के रूप में पिछले 2 दशक से प्रियंका का चेहरा दिखाई दे रहा था लेकिन वह भी अभी तक उनके क्रियाकलापों से बेनक़ाब हो रहा है।

प्रियंका को लखनऊ रह कर निरंतर व्यापक दौरा करना चाहिए और सुस्त पड़े संगठन को सक्रिय करती। इन तमाम नकारात्मक पहलुओं के बीच प्रियंका गांधी की सबसे बड़ी ताकत नेहरू गाँधी परिवार का सदस्य होना है। आज भी गाँधी परिवार का जनता में एक अलग पहचान व सम्मान है। प्रियंका केवल महिलाओं को आधार वोट बैंक बना कर व्यापक रूप से मेलजोल करके जमीनी संघर्ष करती को निश्चित है तो उनके साथ महिलाएं जुड़ती तो अन्य वर्ग के लोग भी कांग्रेस के साथ जुड़ते। उत्तर प्रदेश की सियासत में प्रियंका जैसे कद की महिला कद्द्वार नेता होना उनकी सबसे ताकत थी। इसका उपयोग और अवसर वह गवाँती जा रही हैं।

(लेखक उत्तर प्रदेश के नामचीन राजनैतिक विश्लेषक हैं और पूर्व में सहारा समय उत्तर प्रदेश के स्टेट हेड रहे हैं, विचार उनके निजी हैं)

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