आरएसएस के 100 वर्ष : अनुशासन, सेवा और राष्ट्रनिर्माण की धारा
लखनऊ, अक्टूबर 2 (TNA) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने अपनी स्थापना से लेकर सौ वर्षों की यात्रा में भारतीय समाज और संस्कृति पर गहरा प्रभाव डाला है। 1925 में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा स्थापित इस संगठन का उद्देश्य समाज को संगठित करना और राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावना जगाना था। आरएसएस की सबसे प्रमुख कार्यपद्धति शाखा प्रणाली है।
शाखा में स्वयंसेवक प्रातः या संध्या समय एकत्र होकर व्यायाम, खेल, गीत, प्रार्थना और बौद्धिक चर्चा करते हैं। इसका उद्देश्य केवल शारीरिक सशक्तिकरण नहीं, बल्कि अनुशासन, आत्मविश्वास और समाज के प्रति जिम्मेदारी की भावना का निर्माण करना है।
आरएसएस "व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण" की विचारधारा पर काम करता है। इसकी शाखाओं और संगठनों के माध्यम से शिक्षा, ग्रामीण विकास, स्वास्थ्य सेवा, पर्यावरण संरक्षण और आपदा प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में लाखों स्वयंसेवक निस्वार्थ भाव से कार्य करते हैं।
संघ की प्रेरणा से अनेक सामाजिक और शैक्षिक संस्थाएं खड़ी हुईं, जिन्होंने पिछड़े और वंचित वर्गों तक शिक्षा और सेवा पहुँचाई। प्राकृतिक आपदाओं जैसे-भूकंप, बाढ़ और महामारी में भी स्वयंसेवकों की सक्रिय भागीदारी देखी जाती है।
हालाँकि, संघ की यात्रा विवादों से भी अछूती नहीं रही। समर्थक इसे भारत की सांस्कृतिक पहचान का रक्षक और राष्ट्रीय एकता का संवाहक मानते हैं, जबकि आलोचक इसे विचारधारात्मक कठोरता और राजनीति से निकटता के लिए प्रश्नों के घेरे में रखते हैं। बावजूद इसके, यह तथ्य निर्विवाद है कि आरएसएस ने भारत की सामाजिक संरचना और जनमानस में संगठन, अनुशासन और राष्ट्रसेवा के महत्व को गहराई से स्थापित किया है।
सौ वर्षों की इस यात्रा ने संघ को केवल एक संगठन नहीं, बल्कि एक सामाजिक-सांस्कृतिक धारा बना दिया है। आने वाले समय में भी आरएसएस की कार्यपद्धति और दृष्टि भारतीय समाज की दिशा और विकास पर अपनी छाप छोड़ती रहेगी।