प्रार्थना और दृढ़ विश्वास...
हमारे मन में ही तो भगवान बसते हैं, लेकिन उनको हम देवालयों में ढूंढते है, लेकिन भूल जाते हैं कि, हमारा मन ही तो मंदिर है, हम चाहे किसी भी मज़हब को मानते हो, हमें सिखाया गया है कि देवालय में दाखिल होने के पहले अपने जूते बाहर उतार कर ही अन्दर जाते हैं, जिससे हमारे जूतों पर लगी धूल, मिट्टी, गंदगी से देवालय अपवित्र न हो जाये।
लेकिन यह बात हम अपने मन के बारे में भूल जाते हैं, हम बाहर की तमाम गंदगी से भरा हुआ मन, और अपने अंदर जो जो शत्रू है, ("काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर") और "अहंकार" के जूते लेकर हम उस जगह चलें जाते हैं, जहाँ अपने साईं जी को बिठा कर रखा हैं, अर्थात हम सिर्फ अपने "तन" की सुंदरता पर ध्यान देते हैं, लेकिन "मन" की सुन्दरता पर नहीं, अब आप खुद ही सोचिये ऐसे में हमारे परम पिता, हमारे सदगुरु हमारी प्रार्थना कैसे सुनेंगे....
सभी की ज़िंदगी में कुछ न कुछ कष्ट हैं, बिना कष्ट के जीवन मुमकिन ही नहीं, हमें चाहिए हम अपने परम पिता से जुड़े रहे, उनपर विश्वास रखें, चाहे जैसी परिस्थिति क्यूँ न आ जाए, "साई" ही हमें इस भवसागर से पार कराएँगे.....