जीवन-मृत्यु के बीच मेरी दीक्षा...एक साईं भक्त के जीवन की सच्ची कहानियाँ

जीवन-मृत्यु के बीच मेरी दीक्षा...एक साईं भक्त के जीवन की सच्ची कहानियाँ

जीवन अपनी गति से चल रहा था और छांव के बाद धूप का वक्त आया। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के एक कार्यक्रम को कवर कर अचानक आई बारिश में भीग कर मैं एक दिन कार्यालय पहुंचा। दो-तीन घंटे उसी हालत में खबर लिखी । घर पहुंचते-पहुंचते शरीर में सिहरन होने लगी थी। खाना खाते-खाते बदन टूटने लगा। सुबह उठा तो बदन तप रहा था। शरीर पीला पड़ गया था।

साधारण उपचार कारगर नहीं हुए तो विशेषज्ञों को दिखाया पर कोई लाभ नहीं हुआ। बुखार था कि टूटने का नाम न ले रहा था । कुछ टूट रहा था तो हौसला । पर सागरिका ने हार न मानी और एक पैर पर डॉक्टरों के घर से दवाखाने के बीच दौड़ती रही कि शायद कहीं कोई अच्छी खबर मिल जाएँ। पर अभी शायद इसमें वक्त था और हमारे सब्र की परीक्षा अभी लंबी थी । अचानक चौथे दिन डॉक्टर ने हाथ खड़े कर दिए और मुझे एसजीपीजीआई रैफर कर दिया।

तुरंत एक IAS मित्र रोहित नंदन जी ने गाड़ी का प्रबंध किया और हम अस्पताल पहुंचे। वक्त की नजाकत को जानकर और ऊँची पहुँच का जानकर तुरंत डॉक्टरों का एक दल लगभग मुझ पर टूट पड़ा। इधर, बोतल तो उधर सुई ठोंक दी। दर्द खत्म भी न हुआ था कि खून निकालने एक नर्स आ पहुंची। पर रक्त की जांच से कोई अच्छी खबर न आई। अलबत्ता, अब तक बुखार कम हो चुका था और मैं पहले से थोड़ा चैतन्य भी था।

मेरे माता-पिता ने सुना तो तत्काल दौड़े-दौड़े मैनपुरी से मेरे पास पहुंचे । मेरी पत्नी के चेहरे पर दुख साफ झलक रहा था लेकिन हिम्मत नहीं टूटने का दृढ़ निश्चय उससे ज्यादा दिख रहा था। अस्पताल में एक रात मुझसे बोली कि चिंता ना करो सब ठीक हो जाएगा।

काफी समय तक बुखार टूटा नहीं था। इस बीच, लिवर विषाक्ता का स्तर बढ़ता रहा। मेरी हालत काफी बिगड़ गई और दो-तीन दिनों तक नाजुक बनी रही। मेरे रक्त की प्रारंभिक जांच से शंका उठने लगी कि कहीं ल्यू केमिया-ब्लड कैंसर तो नहीं था। मेरे माता-पिता ने सुना तो तत्काल दौड़े-दौड़े मैनपुरी से मेरे पास पहुंचे । मेरी पत्नी के चेहरे पर दुख साफ झलक रहा था लेकिन हिम्मत नहीं टूटने का दृढ़ निश्चय उससे ज्यादा दिख रहा था। अस्पताल में एक रात मुझसे बोली कि चिंता ना करो सब ठीक हो जाएगा।

एक दिन उप्र के भूतपूर्व मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह जी, जो मुझे अत्यधिक स्नेह करते थे मुझे दिल्ली से देखने आए। वो काफ़ी देर बैठे और केंद्रीय मंत्री होने के नाते उनके साथ अधिकारियों का लाव लश्कर भी था। SGPGI के director महेंद्र भंडारी भी उनके साथ बैठे रहे। बात चीत के चलते बहुत थक गया था। उनके जाने के बाद दवा खाकर सोया ही था कि क्या देखता हूँ, अंधेरे में चमक कौधी और घुप्प अंधकार के बीच दीवार पर अंकित दो अक्षर दिखाई दिए। उन्हें पढ़ा - 'श्रद्धा और सबूरी'।

ये वाक़या जितना यकायक हुआ, उतनी ही तेजी से बीत भी गया। फिर यादों में धुंधला गया। दूसरे ही दिन एक बार सरसरी तौर पर पत्नी से चर्चा करते मैंने उन शब्दों का जिक्र किया। यह सोचकर कि शायद वह इन शब्दों के निहितार्थ को समझने में मेरी मदद कर सकें। दूसरे शब्द से अज्ञानता प्रकट करते हुए उन्होंने 'श्रद्धा' का अर्थ, जिसे मैं भी जानता था, बताया 'समर्पण'। बात यहीं अटक गई और आई-गई हो गई।

हालांकि ये दो शब्द अब तक मेरे चिंतन की परिधि में आ चुके थे ।

चमत्कार ये हुआ इसके बाद कि मानो भगवान ने आखिर सबकी सुन ली। मेरे रक्त में जो तत्व खतरनाक ढंग से बढ़ गए थे, वे जिस तेज़ी से उभरे थे, उतनी ही तीव्रता से लोप भी हो गए। मेरी स्थिति सुधरने लगी। इस सब के बीच मेरी हालत अब स्थिर होने लगी थी। दो दिन बाद हाई मुझे अस्पताल से छुट्टी मिल गयी, बाबा के चमत्कार शुरू हो गए थे पर हमें इसका एहसास भी नहीं था!

क्रमश: कल...

(मोहित दुबे की पुस्तक साईं से साभार)

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