नीब करौरी बाबा की अनंत कथाएँ: बिना नमक की दाल, पर बड़े प्रेम से खिलाई थी, ताईसों हमने भी खाय लई !!

नीब करौरी बाबा की अनंत कथाएँ: बिना नमक की दाल, पर बड़े प्रेम से खिलाई थी, ताईसों हमने भी खाय लई !!

पूर्व में बहुत कुछ कह चुका हूँ, यत्र-तत्र, बाबा जी महाराज के श्री चरणों में प्राप्त अपनी अनुभूतियों के सिलसिले में । फिर भी इच्छा हुई कि बाबा जी के पतित पावन चरण कमलों में ऐसी कुछ अन्य स्मृतियों की अंजलि और भी (अलग से) अर्पण करूँ । यद्यपि अब वे पावन क्षणों की .लीलाये पूरी तरह तथा क्रमवार याद नहीं रहीं, और न वे छोटे-छोटे अनगिनत अपनत्व एवं आत्मीयता भरे खेल, जो महाराज जी हमारे साथ खेलते रहे प्रत्यक्ष में भी और परोक्ष में भी । फिर भी

जब घर में भोजन-प्रसाद बन चुकता तो उसे एक बड़ी थाली में सजाकर उसे पूजाघर में महाराज जी के फोटो-चित्र के सामने हम रख देते थे । समुचित अर्पण-भाव के बाद वही थाली लेकर मैं प्रसाद पाकर ऑफिस को चला जाता । (कालान्तर में महाराज जी के भोग-प्रसाद हेतु पात्रों की अलग से व्यवस्था हो गई थी ।) वर्ष १९६७ के सितम्बर माह की बात है कि एक दिन अर्पित प्रसाद पाते वक्त मैंने पाया कि दाल में नमक है ही नहीं।

कैचीधाम में बाबा जी और इलाहाबाद में हमारी तकरार !! 'नयन बिनु देखा, श्रवण बिनु सुना, बिनु रसना रस भोगा !!' (और कौन जाने बिनु पग चल वहीं आ भी गये हो प्रसाद ग्रहण करने !! )

सहज क्रोधी स्वभाव का मैं एकदम पत्नी पर बरस पड़ा कि, “महाराज जी के भोग पर ध्यान नहीं देती हो ? कोई श्रद्धा नहीं तुम्हें । दाल में नमक नहीं डाला ।” अन्यथा सहिष्णु स्वभाव की, उस देन पत्नी भी न मालूम किस मूड में थी कि गलती स्वीकार करने के बदले बोल उठीं, "मैंने जैसा भी भोग अर्पण किया प्रेम से किया है। महाराज ने उसे पा भी लिया है। लो, तुम्हारी दाल में नमक डाले देती हूँ ।" उनके इस उत्तर से मेरी झुंझलाहट और बढ़ गई तथा उसी झुंझलाहट के साथ मैंने प्रसाद पाया और गुमसुम होकर आफिस चला गया।

नवम्बर तीसरे सप्ताह में ही महाराज जी इलाहाबाद आ गये उस वर्ष । सूचना मिलते ही हम दोनों दादा के घर को दौड़ पड़े । पहले पत्नी ने प्रणाम किया, परन्तु उनके श्री चरणों में झुकते ही बाबा जी कुछ रोष में बोल उठे, “हमें बिना नमक की दाल खिला दी ?” पत्नी कुछ भ्रमित-सी हो गईं, पर मुझे याद आ गई सितम्बर माह की वह घटना, और मैं बहुत प्रसन्न हुआ कि अब डाँट पड़ी, तब नहीं मानी थीं ।

परन्तु तुरन्त ही मेरे भी प्रणाम करते ही महाराज जी, कुछ मुस्कुराते हुए, प्रसन्न मुद्रा में बोल उठे मेरी ओर देखते, “पर इसने बड़े प्रेम (प्रेम) से खिलाई थी, ताईसों हमने भी खाय लई !!” अब मेरी बारी थी खिसियाने की ।

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