नीब करौरी बाबा की अनंत कथाएँ: लोग दस रुपया देते हैं और कहते हैं दस हजार दे दिया
चार रु० में जाने का टिकट, चार ही में आने का, चार रु० का पेठा, दो रुपये रिक्शे और कुछ खर्च अपने पर अधिकतम २० ) रु० में महाप्रभु के हर अवकाश में दर्शन सुलभ !! महाराज जी की लीलाओं को देखता रहता, और साथ में भक्तों का अर्पण भी—जिसकी तुलना में इतनी तुच्छ-ओछी लगती अपनी सेवा ग्लानि से अन्तर दुःखी हो जाता । अपनी स्थिति पर बहुत दुःख होता । (यद्यपि प्रभु बहुत पूर्व में ही मुझे आशीर्वाद दे चुके थे)
यही सब सोचता एक सोमवार की सुबह आगरा वापिस जाने को तैयार होकर मैं आवासीय भवन के बरामदे में टहल रहा था कि महाराज जी कुटी से निकलें तो उन्हें प्रणाम कर चल दूँगा । तभी मन की ग्लानि मिटाने को बुद्धि में तर्क आ गया कि - अरे ! तू क्यों ग्लानि करता है । जो भारी मात्रा में अर्पण कर रहे हैं, उनमें तो पूरी सामर्थ्य है और उनकी कमाई भी तेरे से अलग किस्म की है । उनका तेरे साथ क्या मुकाबला । तेरी गाढ़ी कमाई के १०)रु० उनके दस हजार के बराबर हैं ।
और एकदम ही तभी महाराज जी अपनी कुटी से निकलकर सामने के बरामदे में रखे तखत-आसन पर आ विराजे । देखते ही मैंने दौड़कर उन्हें जैसे ही प्रणाम किया, सरकार तत्काल रोष से बोल उठे, “ऐसे ऐसे लोग आ जाते हैं यहाँ । दस रुपिया देते हैं और कहते हैं दस हजार दे दिया !!" सुनते ही मैंने और भी अधिक ग्लानि से अपने दोनों कान पकड़ लिये ।
तब अत्यन्त मधुर मुस्कान के साथ (जिसमें उनके श्यामल कपोल भी प्रभात की अरुणिमा सम लाल हो गये) बोले, “तू क्यों कान पकड़ता है ?” मैं बोला, “महाराज, आप जानते ही हैं कि क्यों ?" तब पुनः बोले, “नहीं, तेरा सब ठीक है ।” (मैं सबकी एक एक साँस गिनता हूँ – बहुत चल्लाक हूँ – मुझे बावला मत बनाओ जब-तब कहते रहते ।) शान्ति पाकर मैं आगरा चला गया ।