नीब करौरी बाबा की अनंत कथाएँ: तेरे बासी कर्म खाने आया था मैं!!

नीब करौरी बाबा की अनंत कथाएँ: तेरे बासी कर्म खाने आया था मैं!!

एक दिन सुबह को जब मैं महाराज जी के दर्शनों को दादा के घर पहुँचा तो मुझे देर हो चुकी थी और महाराज जी निकल चुके थे भक्तों को अनुग्रहीत करने। निराश हो मैं घर लौट आया। फिर गया, तब भी निराश हो लौट आया । शीघ्रता में थोड़ा प्रसाद पाकर पुनः गया परन्तु पता न चल पाया कि बाबा जी कहाँ को निकल गये हैं। घर के कार्यों से निबट पत्नी भी ११ बजे वहीं आ गई थीं।

मैंने इधर-उधर – हेमदा के घर, राजदा के घर, विजय चौधरी जी के घर तथा कुछ अन्य घरों में – जहाँ जहाँ महाराज जी के विद्यमान होने की संभावनायें थीं, ढूँढ मारा, पर बाबा जी का पता न लग पाया । हारकर पुनः घर आ गया । कुछ भूख-सी लग आई थी पुनः । सो रसोई घर में जाली से दो रोटी और सब्जी का बर्तन निकाल जल्दी जल्दी पा तथा रोटी और सब्जी का बर्तन यथास्थान रख फिर से दादा के घर चला गया कि अब वहीं आसन जमा कर बैठा रहूँगा। तभी पत्नी निराश हो घर को लौट गईं।

और जब मेरे भी धैर्य का बाँध पुनः टूट गया, बेचैनी बढ़ गई बिना दर्शनों के तो डेढ़ बजे के करीब मैं घर को चल दिया (कि अब जाकर सोऊँगा।) कुछ कुछ रोष भी हो आया था भीतर ही भीतर बाबा जी के प्रति। घर की सीढ़ी में कदम रखते ही पाया कि कुछ जोड़े जूते-चप्पल जमा हैं वहाँ। तो क्या बाबा जी यहाँ आये हैं। सीढ़ियाँ कूदता-फाँदता ऊपर पहुँचा तो पाया कि आँगन में एक (मूँज की नंगी) खाट पर महाराज जी बिराजे हैं पालथी मारे, सामने मेज पर थाली में कुछ चपातियाँ हैं जिसे महाराज जी दही-नमक के साथ पा रहे हैं, और सब्जी भरी कटोरी थाली के बाहर मेज में अलग से रखी है !!

उपस्थित भक्तों से पता लग चुका था कि महाराज जी सप्रू साहब, काटजू साहब, गुप्ता जी आदि आदि बड़े बड़े लोगों के घर लीला करते मेरे घर पहुँचे थे ।

सात-आठ भगत (दादा समेत) घेरे खड़े हैं बाबा जी को जिनके साथ महाराज जी रोटियाँ खाते खाते हँस हँसकर बातें भी करते जा रहे हैं। देखकर तो मेरे होश उड़ गये (कि सब्जी तो उच्छिष्ठ ही नहीं, जूठी भी है !) तभी महाराज जी बोल उठे, “हमें बड़ी भूख लगी थी, तेरी माई ने हमें रोटियाँ खिला दीं।” और फिर भक्तों से बतियाने लगे। सहमा-सा मैं पत्नी के पास गया कहा, "गजब कर दिया तुमने, सब्जी तो जूठी थी ।" तब पत्नी ने कहा, "सब्जी की कटोरी तो महाराज जी ने पहले ही हटा दी कि इसे नहीं खाऊँगा।” सुनकर कुछ आश्वस्त हुआ और फिर पूछा, “पर बासी (सुबह की बनी) रोटियाँ क्यों खिलाई ? ताजी नहीं बना सकती थीं ?"

पत्नी बोली, “मैं क्या करती ? महाराज ने कहा बड़ी भूख लगी है, रोटी खिला । और जब मैंने कहा कि महाराज अभी बना देती हूँ, तो बोले नहीं, वही ला जो है, बड़ी भूख लगी है । तब मैंने (नीचे) बेनी महाजन (हलवाई) की दुकान से दही मँगा लिया । बहुत घबरा गई थी मैं ।” सुनकर कुछ शांति मिली । पाँच छः रोटियाँ पाकर महाराज जी चले गये पुनः दादा के घर । जाते जाते पत्नी से पूछा, “तूने नौन-रोटी खाई है कभी ? बड़ी मीठी लगती है !!”

तब मैं इस लीला के विवेचन में डूब गया कई प्रश्न उठ खड़े हुए मन में । क्या बाबा जी सचमुच इतने भूखे थे ? क्या उन्होंने दादा के घर हमेशा की तरह बाल-भोग न पाया होगा सुबह ? क्या उन ५-६ घंटों की अवधि में कई भक्तों के घर जाकर भी बाबा जी ने कुछ भी नहीं पाया होगा? (उपस्थित भक्तों से पता लग चुका था कि महाराज जी सप्रू साहब, काटजू साहब, गुप्ता जी आदि आदि बड़े बड़े लोगों के घर लीला करते मेरे घर पहुँचे थे ।) और तब तो दादा के घर भी दोपहर का प्रसाद भी कब से तैयार हो चुका होगा !! तब मेरे घर उन बासी रोटियों को केवल दही-नमक के साथ क्यों तोड़ गये ? एक ही उत्तर मिल पाया मुझे इन सबका, “तेरे बासी कर्म खाने आया था मैं ।”

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