नीब करौरी बाबा की अनंत कथाएँ: अहंकार से मनुष्य फूल सकता है, फैल नहीं सकता

नीब करौरी बाबा की अनंत कथाएँ: अहंकार से मनुष्य फूल सकता है, फैल नहीं सकता

न आसन की इच्छा, न सिंहासन की । जहाँ जो प्रेम भाव से बिठा दे, सुला दे, वहीं ही प्रभु अति प्रसन्न चाहे वह ऊँची से ऊँची हस्ती का भक्त हो, चाहे प्रारब्ध का मारा लाचार हो, चाहे हरिजन, सफाई मजदूर उनके घर जा जा कर मुक्त भाव से उनके द्वारा भावपूर्ण अर्पित प्रसाद पाते रहते।

नैनीताल में चुंगी के ऊपर सफाई मजदूरों के घर, बजरंगगढ़ के पास रूसी गाँव के हरिजनों के घर और भूमियाधार तथा कानपुर में भी तथाकथित निम्न वर्ग एवं वर्ण के कहे जाने वाले आश्रितों के घर प्रेम का प्रसाद पाने में बाबा जी अत्यन्त सन्तुष्टि प्राप्त करते थे।

नीब करौरी में तो एक बहेलिया (हरिजन) गोपाल ही उनकी सब सेवा करता था, उनके लिये गुफा में भोजन-प्रसाद भी वही लाता था। हरिजनों के प्रति बाबा जी के भावों का दिग्दर्शन श्री केहर सिंह जी द्वारा वर्णित निम्नांकित लीला द्वारा पूर्णरूपेण हो जाता है ।

"यह मंदिर इन्हीं (हरिजन, गरीब, दीन-दुःखी जनता) के लिये बनाया है मैंने।" ऐसा कह वे स्वयं उस ड्राइवर का हाथ पकड़ हनुमान जी के पास ले गये और उसे अपने हाथों से झुकाकर प्रणाम करवाया !! ड्राइवर महाराज जी की इस दीन-वत्सलता पूर्ण लीला से विभोर हो आँसू बहाता उनके श्री चरणों में लोट गया ।

एक बार लखनऊ के हनुमान सेतु में प्रतिष्ठित हनुमान मंदिर में बाबा जी के साथ गया था मैं । साथ में उमादत्त शुक्ला भी थे। हनुमान जी की मूर्ति के पास जाकर बाबा जी उन्हें निहारते कुछ देर खड़े रहे और फिर हनुमान जी की ओर मुँहकर सड़क की ओर की रेलिंग से टेक लगाकर बैठ गये। उनकी पीठ स्वतः सड़क तथा सड़क से मंदिर तक बने पुल-मार्ग की ओर हो गई । मेरा ड्राइवर हरिजन (कोरी) था ।

उसके मन में भी भीतर आकर हनुमान जी को प्रणाम करने की लालसा जाग उठी। सो वह कार को भली भाँति बन्द कर पुल पार करता मंदिर को आने लगा। बाबा जी की ओर मुँह किये शुक्ला जी ने जब यह देखा तो दौड़कर उस हरिजन ड्राइवर को पुल पर ही घेर लिया और उसे धकिया कर वापिस भेजने लगे।

उस तरफ पीठ किये बाबा जी ने यह सब देख-जान लिया और बिजली की-सी फुर्ती से स्वयं दौड़कर पुल पर चले गये तथा ड्राइवर को शुक्ला जी की पकड़ से ऐसी जोर से छुड़ाया कि शुक्ला जी धक्का बर्दाश्त न कर पाये और एक ओर जा गिरें और फिर शुक्ला जी की प्रताड़ना करते हुए बोले, “तू कौन होता है इसे रोकने वाला ? तू क्या सोचता है कि यह मंदिर मैंने तेरे जैसे लोगों के लिए बनाया है ?

यह मंदिर इन्हीं (हरिजन, गरीब, दीन-दुःखी जनता) के लिये बनाया है मैंने।" ऐसा कह वे स्वयं उस ड्राइवर का हाथ पकड़ हनुमान जी के पास ले गये और उसे अपने हाथों से झुकाकर प्रणाम करवाया !! ड्राइवर महाराज जी की इस दीन-वत्सलता पूर्ण लीला से विभोर हो आँसू बहाता उनके श्री चरणों में लोट गया ।

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