नीब करौरी बाबा की अनंत कथाएँ: भीमताल में आए एक दक्षिण भारत के वैष्णव दम्पत्ति की कैसे जान बचायी
बाबाजी महाराज एक दिन एकाएक भीमताल ( नैनीताल) मे एक भक्त, श्री देवी दत्त जोशी के घर पहुँच गये । थोड़ी देर में वहाँ कई अन्य भक्त भी एकत्र हो गये । कुछ इधर-उधर की बातें करने के बाद सहसा बाबा जी ने दो-तीन भक्तों से कुछ दूर पर बने एक पुराने शिव मंदिर के पीछे एक खण्डहर हो चुके भवन की ओर भेजते हुए कहा "जाओ, वहाँ एक आदमी और एक माई कमरे में बन्द हैं, उन्हें ले आओ ।" भक्त लोग आज्ञानुसार चले गये और वहाँ बन्द कमरे का दरवाजा खटखटाया पर कोई न बोला तो लौट आये ।
तब तक बाबाजी दूसरे भक्ति के घर। पहुँच चुके थे । वहीं सब बाते बाबा जी को बताई गई । तब बाबाजी कुछ और भक्तों को भेजा कि, "जाओ, उन्हें पकड़कर ले आओ ।" लोगों । ने वहाँ जाकर जोर जोर से दरवाजा पीटा और चिल्लाये। तब एक अधेड व्यक्ति ने खिड़की खोलकर टूटी-फूटी हिन्दी में पूछा "क्या है ? क्यों परेशान कर रहे हो ?" इन लोगों ने कहा, "तुम्हें बाबा नीम करौली जी बुला रहे हैं।"
बुड्ढे ने साफ तौर पर चलने को मना कर दिया। तब इन लोगों ने उसे पहले तो समझाया और फिर धमकाया कि दरवाजा नहीं खोलोगे तो इसे तोड़कर हम तुम्हें जबरदस्ती ले जायेंगे । तब मजबूर होकर उन्होंने दरवाजा खोल दिया, और इन दोनों स्त्री-पुरुष को भक्त लोग घेरकर ले चले । महाराज जी के पास पहुँचने पर पहले तो इन दोनों को उन्होंने बहुत डाँटा और कहा, "क्या तुम समझते हो कि तुम भूखे रहकर भगवान को डरा सकते हो ? अपने प्रारब्ध के दण्ड भोगना नहीं चाहते ? पर क्या भगवान अपने भक्तों को ऐसे ही आसानी से मरने देंगे ? लो, प्रसाद पाओ ।”
और पूर्व से ही उनके लिए मँगाई गई पूरी, सब्जी, मिठाई उनके सामने रखवा दी पहले तो वे अपनी जिद में अड़े रहे परन्तु बाबा जी के बहुत समझाने पर उन्होंने भोजन कर लिया । अन्य लोगों के लिए यह सब नाटक-सा लगता रहा रहस्य भरा । वास्तव में हुआ यूँ कि दक्षिण भारत का यह वैष्णव दम्पति श्री बद्रीनाथ दर्शन हेतु आया था ।
धनी परिवार के इन लोगों ने सब कुछ छोड़कर शेष जीवन भजन-पूजन-यात्रा में बिताने का विचार कर लिया था । परन्तु बद्रीनाथ से लौटते वक्त चोर-बदमाशों ने उनका सब कुछ जेवर, कपड़े - लूट लिया था । पास में बचे द्रव्य से वे किसी तरह रानीखेत होते हुए भीमताल तक पहुँच सके थे । अपनी भक्तिपूर्ण यात्रा का यह फल देखकर उन्होंने आमरण अनशन का संकल्प ले अपने को उस निर्जन स्थान में कोठरी में बन्द कर लिया था ।
भूखे-प्यासे वे तीन दिन तक भगवान की इस निरंकुशता को कोसते रहे । भगवान के प्रति उस वैष्णव दम्पति का यह रोष और उनकी आस्था-विश्वास पर यह चोट महाप्रभु न सह सके और उनके विश्वास की रक्षा हेतु भीमताल पहुँच गये। भोजनोपरान्त उनके कुछ सुचित्त हो जाने पर महाराज जी ने उन्हें उनके गन्तव्य तक का यात्रा-भाड़ा आदि देना चाहा । पहले तो वे यह दान लेने को सहमत न हुए पर, जब बाबा जी ने उन्हें अपना पता देकर कहा कि, "घर पहुँचने पर भेज देना", तो वे उसे लेकर अपने घर चले गये।
(अनंत कथामृत के सम्पादित अंश)