नीब करौरी बाबा की अनंत कथाएँ: जब बाँह पकड़ ली जब्बर की, परवाह नहीं है कब्बर की !

नीब करौरी बाबा की अनंत कथाएँ: जब बाँह पकड़ ली जब्बर की, परवाह नहीं है कब्बर की !

वर्ष १९६३-६४ की बात है । पूर्व में वर्णन कर चुका हँ कि लटूरी बाबा के आश्रम से अदृश्य होकर महाराज जी मुझे रिक्शे में बिठाकर बरेली रोड पर चल दिये थे । आठ-नौ मील चलने के बाद रिक्शा रोककर उतर गये । मुझसे कहा, “इसको पैसे दे दे ।”

मेरी जेब में केवल एक रुपिया था, वही दे दिया मैंने पर रिक्शेवाले के हाथ में पहुँचते पहुँचते वह रुपये का नोट या तो १०० रु० का हो गया, या फिर वह स्वयं ही महाराज जी का ही सृजित किया रिक्शेवाला होगा नोट पाकर वह अत्यन्त हर्षित, पुलकित होकर चला गया कहता हुआ, १००) रु० हैं ।

तब करीब ग्यारह बज चुके होंगे रात्रि के । एक गाँव को जाती पगडँडी पर महाराज जी चल पड़े। थोड़ी दूर जाकर नहर के पास पैरापेट पर लेट गये । घुप्प अंधेरी रात थी निर्जन वन में हवा साँय-साँय चल रही थी । मन में कुछ भय व्याप गया मेरे । तभी मुझे आज्ञा हुई “पूरन, मेरा पेट मल दे ।”

स्वयं जोर जोर से खर्राटे लेने लगे। मैंने जो पेट मलना प्रारम्भ किया तो वह, महाराज जी के शरीर के साथ साथ, विशाल होता चला गया यहाँ तक कि मेरे हाथों की परिधि के बाहर हो गया। मैं तब केवल अपनी ओर के ही कुछ भाग तक पेट मल पा रहा था । यह सब देखकर मन में भय और भी अधिक बढ़ गया ? तभी महाराज जी उठ बैठे कहते हुए, “घबरा गया ?” और मेरा हाथ पकड़कर कह उठे 'जब बाँह पकड़ ली जब्बर की । परवाह नहीं है कब्बर की ।।"

मैं तब पुनः आश्वस्त हो गया ।

-- पूरनदा

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