नीब करौरी बाबा की अनंत कथाएँ: नीब करौरी से गमन
बाबा जी महाराज इसी प्रकार गाँव में अपनी मनोहारी आध्यात्मिकता-युक्त प्राकृत लीलायें करते रहे जन कल्याणार्थ, परन्तु जहाँ सत्य का उदय होता है, वहीं तामसी प्रवृत्तियों भी उसे नष्ट करने की चेष्टा में रात हो जाती हैं । वैसे भी सीधे-साधे ग्राम वासी बाबा जी की इन अलौकिक लीलाओं का मूल बाबा जी में न देख पाये, उन्हें पहचान न सके।
उनके लिए यह सब एक सिद्धि-प्राप्त जोगी द्वारा किया गया कौतुक- मात्र रह गया - अन्तर छन सका उनका केवल बाबा जी के प्राकृत आचरण के कारण, उनकी भ्रामक लीला-क्रीडाओं के कारण तथा बाबा जी के उनके साथ घुलमिल कर रहने, उन्हीं के अनुरूप व्यवहार करने, मुक्त भाव से उनसे वार्ताएँ करने (जिसमें गाली-गलौज भी शामिल होती). आदि आदि के कारण भी । और वैसे भी तो बाबा जी महाराज अपने को प्रगट ही कब होने देते थे ?
और इसी माहौल में एक ऐसी घटना घटी जिसकी परिणति बाबा जी के गाँव छोड़ देने में हो गई और उनके गाँव को छोड़ने का बहाना बन गई । चूँकि बाबा जी सभी वर्ग, सभी वर्ण-जाति के लोगों को समान
स्थान देते थे अपनी दया-कृपा हेतु, इससे ग्राम का रूढ़िवादी ब्राह्मण वर्ग उनसे असंतुष्ट हो चला था और उनका यह आक्रोश तब और भी भड़क गया जब एक धनी परिवार द्वारा प्रचुर मात्रा में लाये गये स्वर्ण-दान को भी नीब करौरी बाबा ने ब्राह्मणों के मध्य न बँटवाकर महाराज जी ने लौटा दिया ।
तभी एक दिन महाराज जी की अनुपस्थिति में इन लोगों में से कुछेक ने एक भक्त द्वारा भण्डारे हेतु लाये गये घी के टिनों को उसे बाबा जी के विरुद्ध भड़का कर वापिस करवा दिया । वह व्यक्ति इन लोगों की बातों में आकर केवल एक टिन छोड़कर बाकी घी वापिस उठा ले गया । मंदिर आकर बाबा जी को जब यह बात मालूम हुई तो वे मंदिर को एक सेविका, देवी जी को सौंपकर गाँव छोड़ किलाघाट (फर्रुखाबाद - फतेहगढ़) चले गये ।
वैसे सत्य तो यही प्रतीत होता है कि अकारण-करुण बाबा जी महाराज को अपने कृपा-क्षेत्र का विस्तार करना था जिसका समय अब आ चुका था । वे कब तक नीब करौरी तक ही बँधे रह कर सीमित रहते । वे नीब करौरी इसके बाद भी आते रहे कभी कभी - पर गाँववालों के जाने बिना उनसे छिपकर । परन्तु अपनी प्रथम कर्म-भूमि नीब करौरी के नाम को अपने व्यक्तित्व, अपनी पहचान, अपने नाम का प्रतीक बनाकर अमर कर विश्वविख्यात कर गये स्वयं बाबा नीब करौरी बनकर !!
(अनंत कथामृत से साभार)