नीब करौरी बाबा की अनंत कथाएँ: कानपुर से प्रयाग की वो कोहरे में यात्रा और अनजान घर में जा दरवाज़ा खटखटाने का आदेश
जनवरी सन १९६२ की घटना है । महाराज जी मेरे घर पधारे थे। कड़ाके की सर्दी थी। कानपुर में वैसे ही सुबह के समय धुंध छाई रहती है मिलों के कारण, और उस दिन तो सर्दी के मारे बाहर ऐसा घना धुएं के कुहरा छाया हुआ था कि हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था। ऐसे में सुबह ५ बजे ही महाराज जी ने गाड़ी निकालकर प्रयाग चलने की आज्ञा दे दी।
मैं कुछ असमंजस में पड़ गया कि इतने अंधकार, कुहरे और कड़ाके की ठंड में यह सब कैसे संभव हो पायेगा । फिर भी आज्ञा पालन कर मैं गाड़ी निकलवाकर बाबा जी के साथ प्रयाग को रवाना हो गया । कुहरा इतना गहन था कि आगे कुछ भी दिखना असंभव-सा था और इसकी पूरी संभावना थी कि कभी भी किसी गाड़ी से, किसी यात्री से, किसी पेड से टक्कर हो जाये ।
गाड़ी की हेडलाइट कोई लाभ नहीं पहुँचा पा रही थी। ऐसे में गाड़ी की गति भी अत्यन्त धीमी थी और ६-७ किमी० (चकेरी तक) हम किसी तरह डेढ़ घंटे में पहुँच पाये । तभी मेरे मन में आया कि महाराज जी से प्रार्थना करूं कि कुछ देर यहीं रुक जायें और कहीं चाय पी लें ताकि तब तक कुहरा कुछ कम हो जाये और सूरज का प्रकाश भी तेज हो जाये ।
तब मैंने महाराज जी से (लगता है प्रभुप्रेरित हो उसी ऐन वक्त) ऐसा निवेदन कर ही दिया और बाबा जी भी फौरन राजी हो गये और बोले, “यहाँ नहीं, उस फाटक के भीतर ले चलो।” पता नहीं किसके मकान का फाटक है वह उसको हमारा भीतर घुस जाना नागवार गुजर सकता है यही सोचता रह गया मैं और तब तक ड्राइवर ने गाड़ी फाटक के भीतर कर दी । अब महाराज जी का दूसरा हुकुम हुआ कि, “जाओ, दरवाजा खटखटाओ ।”
अब तो मेरे लिये और भी अधिक दुविधाजनक समस्या हो गई कि पता नहीं इस मकान में कौन रहता है और इतनी सुबह ऐसी ठंड में वह क्या समझेगा, क्या कहेगा । तभी बाबा जी ने जोर देकर आज्ञा दुहराई, “जाओ, दरवाजा खुलवाओ ।” आखिर आज्ञा का पालन करना ही पड़ा ।
और दरवाजा खुलते ही सामने कौन था ? बाबा जी के अनन्य भक्त हब्बा जी !! (श्री हीरा लाल साह, जो उन दिनों अपने भतीजे के साथ वहाँ रह रहे थे । यहाँ यह बता देना समुचित होगा कि साह जी जब अत्यन्त आनन्द में डूब जाते थे तो जोर से हब्बा कह देते थे । अस्तु, उनका नाम ही हब्बा पड़ गया ।) वे तो महाराज जी के इस अप्रत्याशित दर्शन से आत्मविभोर हो गये ।
बोले, “महाराज ! अभी अभी हम आपकी ही चर्चा कर रहे थे कि अगर बाबा के दर्शन इस वक्त हो जायें तो आनन्द बरस जाये और तभी ही आप आ गये !! हब्बा !” और तब वहीं चाय-नाश्ता पाकर हम पुनः प्रयाग को चल दिये । तब तक कुहरा भी काफी छँट चुका था ।
परन्तु महाराज जी तो उस मकान में पूर्व में कभी नहीं गये थे और न उन्हें कोई सूचना ही प्राप्त थी कि हब्बाजी तब कहाँ थे !! और उसी मकान के फाटक पर मेरे मुँह से कुछ देर रुक जाने की प्रार्थना कर देना भी तो उन्हीं का खेल था !!