नीब करौरी बाबा की अनंत कथाएँ: सबही धर्मन के अनुयायी, तुम्हें मनावें शीश झुकाई
परम कौतुकी बाबा जी महाराज की अपने भक्तों के साथ (तथा जनता जनार्दन के साथ भी) मनोहारी लीलायें तो प्रतिपल होती रहती थीं। लगता था एक वृहद् परिवार के मध्य पितामह अपने अबोध नाती-पोतों के साथ (इन बच्चों की क्षमतानुसार) रहस्यात्मक विनोदपूर्ण खिलवाड़ कर बिना उनकी समझ में कुछ आये बिना कुछ पल्ले पड़ते एक बाजीगर की भाँति अपने चमत्कार दर्शाते ।
अधिकतर सभी मूक-बधिर की तरह उनकी लीलाओं के या तो पात्र बने रहते या फिर दर्शक । इन प्रतिपल सम्पन्न होती लीलाओं की कोई मिति न थी, कोई सीमा न थी परन्तु जो कुछ भी होता रहता वह केवल खिलवाड़-भर न होकर उनकी दया-करुणा की कल्याणमयी लीलायें ही होतीं ।
और जो कुछ उनके भौतिक शरीर के माध्यम से हुआ विगत वही आज भी उनकी कथित महासमाधि के बाद, निराकार में प्रविष्टि के बाद भी होता जा रहा है जैसा कि आगे तृतीय सर्ग में दी गई कुछ दृष्टांत-रूप लीलाओं से स्पष्ट है । मैं कहाँ गया हूँ ? यहीं तो हूँ ! कह चुके हैं अपनी स्पष्ट वाणी में अनेक भक्तों से विभिन्न अवसरों पर ।
महाराज जी की ऐसी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष, साकार-निराकार रूप लीलाओं का वर्णन करते करते थक उठती है जिह्वा भी, लेखनी भी - कहाँ तक उलीचा जा सकता है बाबा जी महाराज का लीला-महासागर ? फिर भी स्तुति में दृष्टांत-रूप कुछ और लीला-कौतुक आगे वर्णन किये जाएँगे।