नीब करौरी बाबा की अनंत कथाएँ: ठीक है, मालपुआ-खीर ही बनाना, कुत्तों का पेट भरेगा!
एक बार वर्ष १९६० में नैनीताल में बिजनौर शुगर मिल्स के मालिक, सेठ कुन्दन लाल ने (शायद सबकी देखा देखी) महाराज जी को अपनी कोठी में आकर प्रसाद ग्रहण करने का आग्रह किया | बाबा जी बेमन से राजी हो गये । सेठ जी ने बाबा जी से पूछा, “कब आयेंगे ?” बाबा जी ने कह दिया, “जब प्रभु की इच्छा होगी ।" सेठ जी बोले, “कल आइये ।” बाबा जी इसमें भी राजी हो गये ।
सेठ जी इतने में ही सन्तुष्ट हो जाते तो बात बन जाती पर तुरन्त पूछ बैठे, “क्या बनवाऊँ ?” बाबा जी ने कहा, “मिस्सी रोटी और दाल ।” पर शायद सेठ जी को सेठ होने के नाते दाल और मिस्सी रोटी में अपनी प्रभुता कुछ छोटी होती दिखाई दी, सो बोल पड़े, “दाल-रोटी नहीं, मालपुवा-खीर ।”
गर्वप्रहारी को यह रुचिकर न लगा । सो बोले, “ठीक है, मालपुवा खीर ही बनाना । कुत्तों का पेट भरेगा ।” और फिर रूखे ढंग से सेठ को विदा कर दिया । सेठ जी अपने मद में महाराज जी के कथन और उनके व्यवहार को न समझ पाये ।
और जब दूसरे दिन सेठ जी ने बड़ी मात्रा में मालपुवा-खीर बनवाकर बाबा जी एवं भक्तों को लिवाने अपनी कार भेजी तो वह अचानक भीषण वर्षा के कारण कहीं बीच में रुक गई, और उधर बाबा जी भी कहीं अन्यत्र चले गये । इस बीच बाबा जी के इन्तजार में किसी को भी ध्यान नहीं रहा कि भण्डारगृह के पीछे के दरवाजे से दो कुत्तों ने घुसकर मालपुवों और खीर का भोग लगा लिया है !! सारा सामान दूषित हो गया।
सेठ जी ताकते रह गये इस लीला को । (पर क्या उनकी समझ में आया होगा इस लीला का सार कि केवल अहंकार-हीन भावपूर्ण अर्पण ही महाप्रभु को स्वीकार्य है ?)