नीब करौरी बाबा की अनंत कथाएँ: महाराज जी और प्रकृति
कोई तत्व, कोई वस्तु, (जड़ अथवा चेतन) किसी अन्य का सारा (एवं सुचारु रूप से मनोनुकूल) काम तभी करता /करती है जब कि मालिक का उस तत्व अथवा उस वस्तु पर पूर्ण नियंत्रण हो (और साथ में उस तत्व अथवा वस्तु की उपयोगिता का मालिक को समुचित ज्ञान हो।)
यहाँ प्रकृति पर इस प्रकार के अपने भी नियंत्रण का रहस्योदघाटन महाप्रभु ने अपनी तरंग में कर डाला । परन्तु प्रकृति परम-पिता परमात्मा की अपनी कृति है - निराकार ब्रह्म की साकार प्रतिमा है उससे भिन्न नहीं। निर्गुण ब्रह्म प्रकृति के माध्यम से ही सगुण रूप धारण कर अपने अस्तित्व, अपने स्वरूप की पहिचान कराता है। प्रकृति के माध्यम से ही एकोहं बहु श्यामः सम्भव हुआ । चल-अचल, जड़-चेतन सभी उस निराकार की साकार अभिव्यक्तियाँ हैं और उसी के नियंत्रण में, उसी की शक्ति से, उसी की इच्छानुसार नियम-बद्ध प्रकृति की समस्त सृजन, पालन एवं संहार की क्रियायें स्वतः चलती रहती हैं । सारी सृष्टि ही त्रिगुणात्मक (सात्विकी-राजसी-तामसी) प्रकृति की देन है तथा मालिक के ही नियंत्रण में क्रियाशील है ।
और जब ऐसी प्रकृति के तत्व किसी शरीरधारी का भी सारा काम उस शरीरधारी की इच्छानुसार करने लगें तो स्पष्ट है कि ऐसे शरीरघारी में भी वही ईश्वरीय शक्ति और सत्ता विद्यमान है । बेहद्दी मैदान में विचरण करने वाले बाबा जी महाराज का, मानो, प्रकृति स्वयं पीछा करती रहती थी--उनकी सेवा हेतु।
जब जहाँ चाहा, जो कुछ चाहा, जितना चाहा वह स्वतः उपलब्ध हो जाता उन्हें अपनी लीलाओं के सृजन हेतु- केवल उनके विचार मात्र से जंगल में मंगल करना हो, न्यून सामग्री से विशाल जन समूह को तुष्ट करना हो, जल को घी की जगह प्रयोग करना हो, पानी को पेट्रोल में परिणित करना हो, वर्षा का प्रकोप थामना हो, ग्रीष्म का ताप हरना हो, शीत की लहरों को नियन्त्रित करना हो, क्षेत्र विशेष की प्राकृतिक कोप से रक्षा करनी हो, किसी भी वस्तु की कहीं भी संरचना करनी हो, कहीं भी कैसा ही भोज्य पदार्थ-फल आदि उपलब्ध करना हो, गंगाजल की दूध में परिणित करना हो–कहाँ तक गिनाई जा सकती हैं। दैवी शक्ति की ऐसी अभिव्यक्तियाँ ।
परन्तु फिर भी बाबा जी महाराज ने इस शक्ति, इस सत्ता का कभी भी अपने लिये प्रयोग नहीं किया । इसका जब भी, जो भी, जितना भी उपयोग किया वह केवल जन-कल्याणार्थ ही-या तो जन जन के दैहिक-दैविक-भौतिक तापों के निराकरणार्थ या फिर जनता में टूटती फिसलती आध्यात्मिक भावना को सम्बल देने हेतु धर्म संस्थापनार्थाय अथवा भक्तों में आस्था, निष्ठा, आत्म विश्वास के पुनर्जागरण हेतु ही । स्वये तो न कभी क्षुधा की चिन्ता की, न तृष्णा की, न आराम-विराम की और न विश्राम की-प्रतिपल केवल एक ही भाव में निमग्न, एक ही कार्य में रत कि जन जन की आत्म-तृप्ति कैसे हो । यही था वह हमारा सारा
काम बाबा जी महाराज के उक्त उद्घोष में निहित ! और इसी संदर्भ में बाबा जी ने स्वयँ अपने श्री मुख से यह भी कहा था-"पूरन, हम कोई चमत्कार नहीं करते । जब हमारा हृदय किसी बात पर डोल जाता है तो प्रकृति खुद सब कुछ अपने आप कर देती है !!"
बाबा जी महाराज में विद्यमान यह अलौकिक ईश्वरीय सत्ता तथा प्रकृति के विभिन्न तत्वों अग्नि, जल, आकाश, वायु, धरा (एव अन्य त्रिगुणात्मक भौतिक तत्वों)- को अपनी इच्छानुसार सृजनात्मक रूप से भक्त हित, जन हिताय उपयोग करने की शक्ति उनकी विभिन्न लीला-क्रीड़ाओं में स्वतः स्पष्ट हो उठती हैं ।
अपने कम्बल से, अपने कर कमलों से अथवा केवल अपने विचार मात्र से वे कुछ भी, कहीं भी, किसी भी मात्रा में सृजित कर लेते थे । विचार मात्र से ही वे इस हेतु किसा अन्य को भी माध्यम बना कर अपनी सृजनात्मक लीला कर लेते थे । केवल सचेत रह कर ही इन लीलाओं का आनन्द लिया जा सकता था पल्ले तो फिर भी विशेष कुछ पड़ता ही न था ।