नीब करौरी बाबा की अनंत कथाएँ: महाराज जी और कर्मकांड...

नीब करौरी बाबा की अनंत कथाएँ: महाराज जी और कर्मकांड...

यद्यपि बाबा जी महाराज स्वयँ कर्मकाण्ड के प्रपंचों से परे थे, फिर भी संस्कारबद्ध जनता एवं भक्त-समाज की पारम्परिक रुचियों के अनुकूल एवं उनकी तुष्टि हेतु पूजा, अर्चना, यज्ञादि भी आश्रमों में करवाते रहते थे और यदा-कदा रामायण-कथा अथवा भागवत-कथा आदि का भी आयोजन करवाते रहते थे ।

इस सम्बन्ध में बाबा जी का कथन कि, "कर्मकाण्ड- पद्धति के समकक्ष घर-घर में होता नित्य पूजा-पाठ एक ऐसा सबल माध्यम है जिसके कारण ही, चाहे न्यून मात्रा में ही सही, घर परिवार के सदस्य येन-केन भगवान की सत्ता के प्रति आस्था बनाये रहते हैं । यदि इतना भर भी कर्मकाण्ड न हो तो न केवल घर-गृहस्थी की मर्यादा नष्ट हो जायेगी, वरन भगवान को पूरी तरह भूलकर मनुष्य भय-विहीन हो असीमित अनाचार में रत हो जायेगा", ( जैसा कि आजकल तथाकथित नवीन एवं पाश्चात्य सभ्यता में रंगे-डूबे घरों में दृष्टिगत होता है ।)

वस्तुतः, जो वह हमें दे रहा है, उसी को उसे ही विभिन्न प्रकार से (यथा - पूजा, अर्चना, अर्ध्य, भोगार्पण, आभूषणादि अर्पण, धूप-दीप-आरती, यज्ञ-हवनादि के माध्यम से) उसी की स्तुतियों के साथ अर्पण करना ही कर्मकाण्ड है । यद्यपि उसी की प्रदत्त वस्तुओं को ऐसी क्रियाओं द्वारा पुनः उसी को अर्पण करना एक प्रकार का पाखंड-सा प्रतीत होता है बाह्य दृष्टि से, परन्तु यही अर्पण जब रूढ़ता-विहीन भाव से होता है, तो उसे वह भी पूर्ण रूपेण स्वीकार कर लेता है ।

महाराज जी के शब्दों में - भगवान भाव खाता है। योग वाशिष्ठ के अनुसार भी - एव मेव परा पूजा सर्वावस्थासु सर्वदा । एवं बुध्यातु देवेश विधेया ब्रह्म वित्त मैः ।।अर्थात, यह पूजा (कर्मकाण्ड) जिज्ञासु अथवा आते तथा नित्य नैमित्तिक कर्मों में रत भक्तों को सदैव ही एक- निष्ठ भाव से करनी चाहिए सार्थक फल- प्राप्तार्थ ।

यद्यपि बाबा जी महाराज अपने को गुरु रूप में मान्यता दिये जाने को नकारते रहे, फिर भी उनके भक्तों ने, आश्रितों चरणाश्रितों ने (चाहे वे अन्यथा अपने अन्तर में, मन-मानस में बाबा जी को किसी भी अन्य भाव से, अन्य रूप में - यथा,भगवेद् स्वरूप, हनुमदावतार, राम-कृष्ण-शिवरूप, प्रणव स्वरूप, प्रियतम, आदि से भजते हों) उनकी पूजा-अर्चना, प्रार्थना-आरती, आदि उनको सदा सद्गुरु रूप में ही मानकर की - और आज भी यही करते हैं ।

और महाप्रभु भी इन भक्तों के प्रति अपने मातृ, पितृ, सखा, बन्धु, आदि भावों के साथ साथ अपने गुरु-स्वरूप का भी निर्वाह प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में करते रहे - सूक्त रूप में उन्हें ज्ञान प्रदान कर, उनका योग-क्षेम वहन कर, उनकी सांसारिक समस्याओं का समाधान कर, अथवा दृष्टांत युक्त कथाओं-लीलाओं के माध्यम से मार्गदर्शन कर या फिर जिज्ञासुओं की जटिल समस्याओं, उलझनों-शंकाओं आदि का निवारण कर। अपने भक्तों की इच्छा पूर्ति हेतु श्री गुरु पूर्णिमा के अवसर पर बाबा जी महाराज गुरु-रूप में अपना पूजन करने का अवसर भी उन्हें प्रदान कर देते थे ।

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