नीब करौरी बाबा की अनंत कथाएँ: इनको देखो, घर में लल्ला हुआ है और ये रो रहे हैं !
किशोरी रमणाचार्य (वृन्दावन) ने, जो कैंचीधाम में आज (१९६२) दो दशकों से भी ऊपर भागवद्-सप्ताह में कथा सुनाते हैं, अपनी पुत्र-प्राप्ति की गाथा यों सुनाई ।
पुत्र प्राप्ति की आशा में एक के बाद एक पाँच कन्यायें आ गई मेरे घर – परन्तु पुत्र प्राप्ति का मनोरथ मृगमरीचिका बन कर रह गया । क्या करता प्रारब्ध में तो यही था ।
वर्ष १६७१ में कैंची धाम में मेरी भागवत कथा पूरी हुई । महाप्रभु की कृपा से भरपूर दक्षिणा एवं विभिन्न वस्तुओं की प्राप्ति हुई – महादानी का दरबार जो था। उन्हें समेटते समय एकाएक भाव उठे (और मैं विह्वल हो गया) कि, “इस दरबार से केवल यही सब लेकर मैं क्या करूँगा ? सर्वसमर्थ महाराज जी क्या मुझे यही दान देकर विदा कर देंगे ? मनोरथ पूर्ति की असली दक्षिणा नहीं देंगे ?”
सोचते ही मैंने सब सामान बाँधा और उसे अलीगढ़ के विशम्भर जी द्वारा उठवाकर (महाराज की) रामकुटी में जाकर महाराज जी के चरणों में रख दिया । “क्या है यह सब ?” पूछा बाबा जी ने । मैं तो भीतर से भरा था कुछ न बोला पर विशम्भर जी बोले "महाराज, यह सब इन्हें दक्षिणा में मिला है, आपको समर्पित, कर रहे हैं परन्तु अन्तर्यामी से क्या छिप सकता था ?
मेरे विह्वल भाव का प्रणाम स्वीकारते बोले "जा, जा, ले जा इसे हो गई दक्षिणा जा, होगा।" विशम्भर जी क्या समझते इस भाषा को ? मैं कृतकृत्य हो गया। कुटी से निकलते निकलते फिर सुना मैंने - “जा, होगा ।"
वर्ष १९७२ में वृन्दावन में मुझे आश्रम में बुलाकर कहा, “शतचण्डी होनी है गोयंका धर्मशाला में । तुम्हें मुख्य आचार्य बन कर सब इन्तजाम करना होगा ।" मैंने आज्ञा शिरोधार्य की और व्यवस्था के बाद चण्डी अनुष्ठान प्रारम्भ हो गया । दो दिन हो चुके थे। घर की भी फिक्र थी कि प्रसवकाल समीप है। तीसरे दिन सूचना मिली कि पत्नी मिशन अस्पताल में भर्ती है तथा उसकी भी और आनेवाले की भी जिन्दगी खतरे आपरेशन होगा आपको दस्तखत करने हैं कागजों में। सुनकर दिल बैठ गया।
याद आ गई अपने पिता की बात कि अनुष्ठानों में अधिक न उलझना। कार्यभार अपने सहायक को सौंपकर घर को चला । सोचा, कम से कम महाराज जी को तो बता दूँ कि ऐसा है, और घर जा रहा हूँ । सूखा, मुरझाया, मुर्दनी भरा चेहरा लेकर उनके पास पहुँचा । कुछ लोग और भी बैठे थे उनके पास । मुझे देखते ही बाबा जी उनकी तरफ देख बोले, “इनको देखो । घर में लल्ला हुआ है और ये रो रहे हैं । " दो बार और कहा ऐसा, और जब मेरे उथल-पुथल मानस में उनकी वाणी में निहित तथ्य घुसा तो मैं आश्वस्त हुआ कि जच्चा-बच्चा दोनों ठीक हैं, और कि अबकी लड़का हुआ है !! प्रसन्न होकर उन्हें प्रणाम किया तो बोले, “जाओ, अब लाला का मुँह देखो ।” उछलते डगों से अस्पताल गया बाबा जी महाराज के अमोघ आशीर्वाद का स्वरूप देखा ।
पुनः आकर महाराज जी से कहा, “महाराज, अब तो मैं अशौच में हो गया । अनुष्ठान मेरा सहायक ही करेगा ।" तो डपट कर बोले, “कैसे पंडित हो ? फलां श्लोक में क्या लिखा है ?” याद आया कि उसके अनुसार तो कर्मकाण्ड के आचार्य का वरण हो जाने के बाद किसी भी कारण उसे अशौच नहीं होता वरण इसी के लिए ही होता है !! “हाँ, महाराज । उसमें तो ऐसा ही है ।” “तो जाओ, अनुष्ठान पूरा करो पर भोजन यहीं ( आश्रम में) करोगे और सोओगे भी यहीं । शाम को एक बार घर जाकर देख आना अपने लल्ला को ।”
उसी के बाद बोल उठे, “नाम क्या रखोगे लाला का ?" अजीब सा लगा मुझे उनका यह प्रश्न जब कि दस दिन की शुद्धि के बिना नाम रखने का कोई विचार ही नहीं उठना चाहिये। कहा, तो बोले, “क्या होती है शुद्धि ? नाम रख दो ।” मैंने सोचा जिनकी कृपा बाबा जी कह रहे हैं से ही यह प्राप्ति हुई है । बोला, “आप ही बता दें क्या नामः रखें ?" “मारुति रख दो ।” फिर अन्य भक्तों की तरफ देख बोले, "क्यों ? कैसा नाम है ?" सभी ने एक स्वर में कहा, “वाह ! बहुत अच्छा नाम है ।" और एकादशरुद्रावतार का यह प्रसाद, मारुति नँदन आज आपके सामने है ।
और बाबा जी ने तो दो बार कहा था न 'जा होगा, जा होगा।' सो कुछ काल बाद मेरे घर यदुनंदन भी आ विराजे !! कहाँ एक भी नहीं और कहाँ दो दो !!
--किशोरी रमाणाचार्य, वृन्दावन