नीब करौरी बाबा की अनंत कथाएँ: विश्वनाथ मंदिर से अधिक महत्ता ज्ञानवापी की जहाँ शंकर भगवान अनेक वेषों में घूमते रहते हैं
महाराज जी की कृपा से मेरा उनके कई अनन्य भक्तों से मैत्रीपूर्ण गुरु-भाई का सम्बन्ध स्थापित हो चला था । महाराज कुमार विजयानगरम भी इन्हीं ऐसे मित्रों में से थे । उनके देहावसान का समाचार पाकर मैं भी बहुत दुःखी हुआ । परन्तु महाराज कुमार के अलावा उनके परिवार में मेरा और कोई परिचित न था । अतः मैं अपना शोक एवं अपनी ओर से संवेदना भी प्रगट न कर सका किसी से । मन की मन में दबी रह गई ।
तभी कुछ समय बाद महाराज जी आ गये । अन्य बातों के अलावा कहने लगे कि, “तुम नहीं गये विजयानगरम के घर उसकी मृत्यु पर ?” मैंने कहा, “महाराज, मैं उनके सिवा किसी और परिवार वाले को जानता नहीं था । क्या करता वहाँ जाकर ?” तो बोले, “चलो, बनारस चलें विजयानगरम कोठी । फिर उसके बाद शंकर भगवान के दर्शन करायेंगे तुम्हें ।” अतः हम चल दिये। सूक्ष्म में कोठी तक जाकर (पर भीतर न जाकर बाहर ही) महाराज जी बोले, “नहीं, सकट-मोचन चलो।” और जब हम संकट मोचन हनुमान मंदिर पहुँचे तो महाराजकुमार का सारा परिवार वहीं मिल गया !!
उनके साथ फिर कोठी पर आये। आवश्यक औपचारिकता के बाद हम सीधे विश्वनाथ जी के मंदिर पहुँचे । परन्तु वहाँ मंदिर में न जाकर बाबा जी सीधे ज्ञानवापी पहुँच गये । वहाँ उन्हें विचित्र वेशभूषा में साधू किस्म का एक आदमी मिला जिससे महाराज जी भी बड़े विचित्र भाव एवं अंतरंगता से मिले !! वह साधू भी महाराज जी से ऐसे मिला और इस तरह बातें करता रहा, मानो, वह महाराज जी की महत्ता जानता ही न हो और उन्हें एक साधारण दर्शनार्थी मात्र समझता हो ।
अपने प्रभू के प्रति उसका ऐसा व्यवहार देखकर उस मनुष्य के प्रति मेरे मन में क्षुब्धता और खिन्नता-सी व्याप गई। तभी महाराज जी ने मुझसे कहा, “इसे चार आने दे दे।” मैंने बड़े बेमन से बाबा जी की आज्ञा से उसे चार आने दे दिये । (मन में तो रोष भरा था।) तभी महाराज जी बोले, “सन्त के प्रति बुरे भाव नहीं रखने चाहिए ।” मेरी समझ में नहीं आया कि वह व्यक्ति संत कैसे हो सकता है
फिर हम सीधे वापिस आ गये कानपुर। मैं मन ही मन सोचता रह महाराज जी ने कहा था “शंकर भगवान के दर्शन करवायेंगे पर गया करवाये नहीं।” (मेरा यह भाव केवल विश्वनाथ मंदिर के शिवलिंग तक ही सीमित था । )
बहुत बाद में (एक) श्री गुहा महाशय महाराज जी के दर्शनों को आये । बाबा जी द्वारा पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि, “विश्वनाथ जी के मंदिर से भी अधिक महत्ता ज्ञानवापी की है जहाँ शंकर भगवान अनेक वेषों, अनेक रूपों में घूमते रहते हैं। कोई जान नहीं सकता । अतएव वहाँ घूमते-बैठते हर साधू-संत-जोगी-भिखारी आदि को कुछ न कुछ दान में अवश्य देना चाहिए । पता नहीं शंकर भगवान किस वेष में हों उस वक्त ।"
तभी महाराज जी ने मेरी तरफ ऐसी मतलब भरी निगाह से देखा मानो कह रहे हों, “अब समझे हम क्यों ले गये थे तुम्हें ज्ञानवापी और क्यों चार आने दिलवाये उसको वहाँ ?” तब वहाँ के उस रोज का सारा दृश्य मेरी आँखों के आगे घूम गया।
महाराज जी ने कहा था, “शंकर भगवान के दर्शन करायेंगे तुम्हें ।” परन्तु उनकी रहस्यमय वाणी और लीलाओं को कब कौन समझ पाया सही अर्थ में मन-बुद्धि-वाणी की कोई क्षमता नहीं कि बाबा जी को समझ सके, जान सके और विशेषकर तब जब स्वयं रुद्रावतार बाबा जी ही अपने ही दूसरे स्वरूप के दर्शन कराने की बात करते हों !! मैं तब इतने ही संतोष में डूब गया कि, “मैंने न सही, शंकर भगवान ने तो मुझे देख लिया बाबा जी की कृपा से।”
-देवकामता दीक्षित