नीब करौरी बाबा की अनंत कथाएँ: भगवान भोग खाता है, भगवान भाव खाता है, तभी प्रसाद बनता है !
एक दिन, लीलाओं के मध्य इलाहाबाद में दादा के घर दर्शनों के लिये आई हुई डाक्टर राय की पत्नी से आप (जानते बूझते) पूछ बैठे, “तू पूजा भी करती है ?" उसने स्वाभाविक तौर पर कह दिया, "हाँ, बाबा !" सीधा-सा उत्तर था । कोई नई बात न थी। बहुतों के घर होता है पूजा-पाठ । परन्तु महाराज जी को तो कोई और ही खेल खेलना था भक्तों को कुछ समझाने के लिये। सो पुनः पूछ बैठे, किसकी पूजा करती है ?" "कृष्ण भगवान की, बाबा।" "कैसे हैं तेरे भगवान ? लाकर हमें दिखायेगी?” (दादा के घर उपस्थित सभी लोग शायद मेरी तरह सोचते रह गये सकते थे बाबा जी।) - उसके ही घर जाकर भी तो देख
और वह संभ्रान्त महिला दूसरे ही दिन निःसंकोच अपने कृष्ण कन्हैया की बड़ी-सी मूर्ति ले आई एक शुभ्र-वस्त्र में लपेट कर !! मूर्ति को हाथों में लेकर महाराज जी ने बड़े ध्यान से देखकर उसकी बड़ी प्रसंशा की। सभी मन्त्र-मुग्ध इस लीला को देख रहे थे पर किसी की समझ में यह नाटक उतर नहीं पा रहा था । सभी इसे महज एक खिलवाड़ समझ रहे थे उस महिला को प्रसन्न करने हेतु ।
पर अब असली लीला प्रारम्भ हुई । पूछा, “तू अपने भगवान को स्नान कराती है ?" "नहीं बाबा, बस पोंछ कर श्रृंगार करती हूं, पुष्प चढ़ाती हूँ, भोग लगाकर आरती-प्रार्थना करती हूँ ।" "क्या भोग लगाती है ?" "बाबा, जो कुछ घर में बनता है - हलुवा, मिष्टी सब्जी, रोटी, दाल, चावल, वही अर्पन (अर्पण) कर देती हूँ ।" "पहले भगवान को भोग लगाती है या पती (पति) को ?" "बाबा, ये तो सुबह ही काम पर चले जाते हैं। पहले उन्हें नाश्ता करा देती हूँ फिर नहीं धोकर, प्रसाद बनाकर भगवान को भोग लगाती हूँ । इस पर बाबा जी कुछ इधर उधर भक्तों तथा उपस्थित महिलाओं पर दृष्टिपात करते हुए बोले, "वाह! ये तो बड़ी अच्छी बात है | पति की सेवा पहले करनी चाहिए । तब फिर भगवान की ।"
इतनी भूमिका तैयार कर महाराज जी इस लीला के असली और अन्तिम मोड पर आ गये । कुछ झुककर बोले -
“बता, तेरा भगवान तेरे अर्पण किये गये भोग को खाता है ?" महिला इस प्रश्न के लिये तैयार न थी वह असमंजस में पड़ गई कि क्या उत्तर दूँ । सारा उपस्थित भक्त समाज अब बड़ी उत्सुकता से यह लीला देखने लगा था । तभी वह महिला बोली, "ये तो, बाबा, मै नहीं जानती । मैं तो इसी भाव से भोग अर्पन करती हूँ कि कन्हैया खाता होगा ।" तब बाबा जी एकदम सीधे होकर बैठ गये और गम्भीर स्वर में जोर देकर बोले, “हाँ, खाता है । भगवान भाव खाता है। तभी प्रसाद बनता है ।"
हुई कि और लीला समाप्त परन्तु इतनी लीला केवल यह बताने के लिये - प्रेम-भाव - केवल प्रेम-भाव से ही अर्पित कोई सेवा भगवान को स्वीकार्य है, और कि मंदिरों में, भोजन के पूर्व घरों में भावपूर्ण अर्पित भोग ही प्रसाद बनता है - भगवान की जूठन । भावहीन भोग का अर्पण केवल कर्मकाण्ड की रूखी विधा बनकर रह जाता है । (मुकुन्दा)