नीब करौरी बाबा की अनंत कथाएँ: जाओ वृंदावन जाओ, प्रबंध हो जाएगा!
“धर्म के कार्यों में सहयोग” की बाबा जी द्वारा सीख की चर्चा मैं पूर्व में ही कर चुका हू । परन्तु उनकी यह सीख उनके निर्गुण में प्रविष्ट हो जाने के उपरान्त भी चलती रही, (और अब भी चल रही है जिसका अनुभव अनेक भक्तों को होता रहता है ।)
वृन्दावन आश्रम की एक महत्वपूर्ण मीटिंग वर्ष १९७६ में होनी थी, जिसमें कुछ गम्भीर मुद्दों पर विचार एवं निर्णय होना था । परन्तु कुछ तो मनः स्थिति के कारण तथा परिस्थितियों के कारण भी मैं असमंजस में ही पड़ा रह गया । दूसरे ही दिन मीटिंग होनी थी । मैं बरामदे में बैठा अखबार पढ़ रहा था, तभी देखा कि बाहर लॉन में एक साधू-सदृश आदमी बैठा है ।
यह सोचकर कि फाटक बन्द होने पर भी यह आदमी बिना सूचना-आज्ञा के क्यों भीतर आ गया मैं उसके पास पहुँचा और फटकार-सी लगाई कि बन्द फाटक के भीतर तुम कैसे आये ? बिना किसी प्रकार का बिचलन दर्शाये वह साधू संयत शब्दों में बोल उठा, “हम तो ऐसे ही आ जाते हैं ।” इस पर मुझे रोष-सा हो आया । तभी वह पुनः बोल उठा, "वृन्दावन से आ रहे हैं ।”
उसका वृन्दावन शब्द कहते ही मुझे पुनः मीटिंग की याद आ गई और मैं भी बोल उठा, “मुझे भी अपने गुरु आश्रम वृन्दावन जाना था मीटिंग में । पर मैं जा नहीं पा रहा हूँ ।” इस पर साधू-महाराज बोल उठे, “जाना चाहिए तुम्हें । गुरु-कार्य में सहयोग देना चाहिए।" तब मैं बोला, "अब कैसे जा सकता हूँ । सीट-बर्थ किसी का भी तो रिजर्वेशन नहीं है।" इस पर साधू बाबा पुनः बोल उठे, “क्या होता है रिजर्वेशन ? तुम जाओ। कुछ न कुछ प्रबन्ध हो ही जायेगा ।”
इस सब वार्ता के मध्य मैं भूल ही गया कि साधू बाबा बन्द फाटक से बिना सूचना के भीतर घुस आये थे । परन्तु सन्ध्या तक मैंने वृन्दावन जाने का निर्णय ले लिया । स्टेशन पहुँच टिकट लिया तो गाड़ी छूटने में केवल पाँच मिनट रह गये थे और सभी डिब्बे खचाखच भर चुके थे । सोचा से कहा, "आप मेरी सीट में बैठ जाइये। तब तक मैं डिब्बे की चेकिंग कर लौट चलें ।
तभी एक डिब्बे के कन्डक्टर ने पास आकर मुझ लूँ । आधा-पौन घंटा लगेगा ही । शायद कोई बर्थ मिल जाये आप के लिये।" गाड़ी चल दी और मैं सोचता रह गया कि अगर सीट न मिली तो रात भर क्या होगा ? परन्तु मथुरा तक न तो वह कन्डक्टर लौटकर आया और न मेरे लिये कोई अन्य स्थान की आवश्यकता पड़ी । सारी रात उसी बर्थ में आराम से कट गई ।
मीटिंग में मेरा पहुँचना परमावश्यक था वहाँ पहुँचकर ही मुझे - इस तथ्य का अहसास हो पाया । कुछ अप्रत्याशित घटने से बच गया !! परन्तु कौन थे वे साधू बाबा जिन्होंने वृन्दावन का नाम लेकर मुझे मीटिंग हेतु प्रेरित किया ? और कौन थे वे कन्डक्टर साहब जिन्होंने मेरी प्रार्थना के बिना ही मुझे बर्थ दे दी और रात भर नहीं आये पलटकर, और न फिर दिखे ही ?
-- देव कामता दीक्षित, कानपुर