नीब करौरी बाबा की अनंत कथाएँ: दया के अवतार बाबा जी महाराज

नीब करौरी बाबा की अनंत कथाएँ: दया के अवतार बाबा जी महाराज

दादा, हम क्या करें, हमें दया आ जाती है | दादा मुखर्जी से बातें करते, अपने ही दया-करुणा पूर्ण स्वभाव के समक्ष स्वय लाचार बाबा जी महाराज के ये हृदयोद्गार फूट पड़े । परमपिता परमेश्वर भी तो इसी भाँति जन-जन एवं दीनों के प्रति अपने दया करुणा पूर्ण स्वभाव के आगे लाचार ही रहा है, लाचार रहेगा । तभी तो वह दया-निधान, करुणा-सागर, दीनबन्धु, दीनानाथ आदि विशेषणों से सम्बोधित होता रहा है ।

बाबा जी के निकट सम्पर्क में आये हर व्यक्ति को एक अनुभूति तो होती ही थी कि उनके पास जन जन के लिये दया ही दया थी । दया बाबा जी के निकट सम्पर्क में आये हर व्यक्ति को एक अनुभूति तो होती ही थी कि उनके पास जन जन के लिये दया ही दया थी। दया थी तो क्षमा भी थी। दया ही तो क्षमा की जननी है। इसी कारण बड़े से बड़े जघन्य अपराध भी बाबा जी के लिये क्षम्य हो जाते थे।

कर्मों के दण्ड या तो वे प्रकृति के नियम-जो जस करहिं सो तस फल चाखा के अधीन छोड़ देते थे या अधिकतर दयावश अपराधी को कोमल से कोमल दण्ड देकर उसके अपराध का प्रायश्चित करा देते थे (हृदय-परिवर्तन हेतु ।) अपने स्वयं के प्रति किसी भी अपराध को तो वे अपराध मानते ही न थे, परन्तु एक अपराध उनके द्वारा भी क्षम्य न था-वह था भक्त के प्रति किया गया अपराध जो भक्तन सों बैर करत है,सो बैरी निज मेरो।

ऐसे अपराधी दरबार से निष्कासित भी कर दिये जाते थे परन्तु हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर के भी विपरीत उन्हें छोड़ते न थे-सदा परोक्ष रूप में उनका भी पीछा करते रहते थे। उनकी याद कर उनके अनजाने ही उनका योग-क्षेम भी वहन किये रहते, रक्षा करते रहते थे उनकी- जिसका हाथ मैं पकड़ लेता हूँ,उसे मैं कभी नहीं छोड़ता- यही विरद था उनका, जिसका निर्वाह वे अपने निर्गुण-प्रवेश के उपरान्त भी कर रहे है । अपराधकर्ताओं को भी अपना दिव्य भगवद्तत्व-युक्त प्रसाद पवाकर

सरकार उनके हृदय में परिवर्तन लाकर उनकी अपराध प्रवृत्ति में न्यूनता लाते रहते थे । पूछे जाने पर कि ऐसे लोगों को भी इतना अधिक प्रसाद आप क्यों देते रहते हैं लो, और लो, और लो कहकर उन्हें सम्मान-सा देकर हँसते-हुये उत्तर देते कि, "अगर हम इन्हें प्रसाद देकर खुश न करें तो ये मेरे पास फिर फिर कैसे आयेंगे?" (और राम नाम कैसे लेंगे ?)

इस त्रिगुणात्मक सृष्टि में सत्व, रज एवं तम के एक निश्चित अनुपातिक मिश्रण को लेकर हर मनुष्य उत्पन्न होता है जो उसके मूल-स्वभाव, मूल-प्रवृत्ति, चरित्र एवं व्यक्तित्व का कारण/परिचायक होता है। अनगिनत संख्या के ऐसे भिन्न-भिन्न मिश्रण संसार में अरबों की संख्या में उत्पन्न मनुष्यों में उतने ही भिन्न प्रकार के स्वभाव एवं गुणों के मूल बन जाते हैं और हर व्यक्ति में विद्यमान सत (दैवी गुण) एवं असत (काम,क्रोध, मद, लोभ, अहंकारादि) की मात्राओं के भी ।

मनुष्य कृत सत और असत कर्म मूलतः इन्ही जन्म-जात वृत्तियों तथा प्रारब्ध-वश उत्पन्न परिस्थितियों पर निर्भर होते हैं । सामाजिक एवं नैतिक अपराध भी इन्हीं वृत्तियों एवं प्रारब्ध-जन्य परिस्थितियों से जुड़े होते हैं जिनके आगे मन की दुर्बलताओं के कारण ही मनुष्य लाचार हो जाता है पूरी तरह । त्रिकालदर्शी बाबा जी महाराज के लिये मनुष्य की यही लाचारी उनकी दया एवं क्षमा का कारण बन जाती थी। सर्वज्ञ बाबा जी जानते थे और कई बार कह भी चुके थे कि, "सब बने बनाये आते हैं।"

अस्तु, काल-कर्म-स्वभाव-गुण से घिरे व्यक्ति विशेष को देखते ही (यहाँ तक कि उसके परोक्ष में भी) मानो, वे उसके प्रारब्ध एवं कर्म, उसके भूत, भविष्य तथा वर्तमान का लेखा-जोखा, उसके अवचेतन मस्तिष्क में दबी चाह, छपी भावना सभी पढ़ डालते और उसी के अनुरूप उसके साथ करुणा दया-क्षमा अथवा कृपा की लीला कर देते ।

इसीलिये बाह्य आचरण का अथवा वेषभूषा का भी बाबा जी महाराज के लिये कोई महत्व नहीं रहा कभी भी । न तो अपनी स्तुति ही उन्हें प्रभावित कर पाती और न निन्दा ही । परन्तु यदि स्तुति दैन्य लिये हो तो फिर दया की वर्षा हो ही जाती और निन्दा करने वाला व्यक्ति भी

रोष का नहीं वरन दुगुनी दया का पात्र बन जाता ! उसकी उक्त परिभाषित लाचारी ही दया-क्षमा का कारण बन जाती तब !! अधिकांश संख्या में बाह्य रूप से महाराज जी को त्वमेव माता च पिता त्वमेव कहने वालों को भी (जिनमें मैं स्वयँ भी प्रमुख रहा) महाराज जी होहुँ कहावत सब कहत, राम सहत उपहास के अनुसार स्वीकार कर लेते थे । प्रभु जानते थे (और स्वयँ भी कई अवसरों पर श्री माँ से कह चुके थे) कि, “सभी मेरे पास केवल अपने ही लिये (स्वार्थ पूर्ति हेतु) आते हैं, मेरे लिये (भक्ति, ज्ञान, परमार्थ, आदि के लिये) नहीं आते ।”

परन्तु फिर भी घट-घट की जानने वाले दयानिधान बाबा जी ऐसे याचकों के भी अन्तरमन की चाह जानकर उनके सारे कर्मजन्य अपराधों को क्षमा कर उनकी इच्छा पूरी करते रहते थे - किसी को उसके अन्तर की चाह जानकर संत बना दिया, किसी को महंत बना दिया, किसी को गुरु, किसी को धनी बना दिया, किसी को संतान दे दी, किसी को वैभव, किसी को यश - और भी न मालूम क्या क्या, कितना-कितना दे दिया। और कभी कभी तो अपनी दया की लहर में अपने अक्षय भंडार से किसी को वह भी दे दिया जो उसके प्रारब्ध में, उसके कर्मों के अनुरूप था ही नही !! यहाँ तक कि (पात्र-कुपात्र में बिना भेद किये) अपने इस मुक्त-दान के कारण उत्पन्न भस्मासुरों पर भी अपनी दया-क्षमा की वर्षा करते रहे ||

दया की ऐसी लीलायें आज भी यथावत है !! असिव रूप धारण कर जिस प्रकार आशुतोष शंकर भगवान ने देव समाज द्वारा तिरस्कृत, निष्कासित, अधोगति प्राप्त भूत-प्रेत पिशाचों को अपना कर अपनी बारात में सम्मिलित कर सम्मानित किया, उसी प्रकार करुणानिधान एकादश रुद्रावतार बाबा जी महाराज भी इस असिव रूप की, मानो, पुनरावृत्ति करते हुये इस कलिकाल के ऐसे भूत-प्रेत-पिशाचों के प्रतिरूप (काम, क्रोध, मद, लोभ, अहंकारादि में गर्दन तक डूबे) जघन्यतम सामाजिक एवं नैतिक अपराधों के कर्ताओं को अपने सम्मुख पाने पर अपने श्री चरणों में प्रश्रय देते रहे । अपनी मूल प्रकृति एवं प्रवृत्तियों तथा प्रारब्ध के वशीभूत एवं मनेच्छाओं की प्रबलता के सन्मुख निरीह ऐसे (सामाजिक एवं नैतिक) दुष्कर्मियों के प्रति महाप्रभु के पास केवल करुणा- दया-क्षमा थी, और थी उनके येन केन प्रकारेण कल्याण की भावना । इसी ही उद्देश्य से, शंकर भगवान की ही भाँति, अपने इन लाचार भक्तों-शरणागतों के दुष्कर्मों की ही हलाहल पीते रहे महाप्रभु जीवन पर्यन्त !! भी

अस्तु, दीन-दयाल, दीन-बन्धु, दीनानाथ, दीन-अनुरागी बाबा जी के पास दीन (मनसा, वाचा, कर्मणा याचक) तो आते ही थे प्रश्रय पाने, हीन (कामनाओं की पूर्ति हेतु जघन्यतम कर्मों के कर्ता) भी बहुल संख्या में आ जाते थे इस हेतु, और इन्हें भी महाप्रभ अपनी दया-करुणा के वशीभूत हो अपना लेते थे - कि, अनत कहाँ ठौर पायेंगे ये ।। और ऐसों को भी दयानिधान ने अपने श्री चरणों में केवल प्रश्रय

ही नहीं दिया वरन् ऐसा कर उनकी असत प्रवृत्तियों में न्यूनता ला दी और साथ में, उन्हें अपने दरबार में सम्मिलित कर मान-सम्मान देते हुये उनमें धर्मार्थ-परमार्थ कर्म करने की प्रवृत्ति भी उजागर कर दी ताकि उनके खातों में भी कुछ तो जमा हो जाये भविष्य के लिये - येन केन विधि दीन्हें, दान दिये कल्यान । परन्तु इस सबके प्रतिकार-स्वरूप बाबा जी महाराज को अपने लिये किसी से भी किसी भी प्रकार कोई अपेक्षा कभी भी नहीं रही तक कि अपने प्रति कृतज्ञता अथवा आदर-सम्मान की भी नहीं ।

यहाँ जन जन के प्रति अपनी इसी दया, इसी करुणा के कारण महाप्रभु अनेक रूप धारण कर उनके अनुरूप भूमिकायें अपनाते रहे - माँ, पिता, भाई, बन्धु, सखा, गुरु, अन्नदाता, आदि आदि बनकर जिसके निर्वाह भाई, बन्धु, सखा, गुरु, अन्नदाता, आदि आदि बनकर - जिसके निर्वाह हेतु उन्हें उचित-अनुचित की सीमायें भी तोड़नी पड़ीं-- बिना मान-अपमान, आक्षेपों, लांछनों, अथवा अपवादों की परवाह किये बाजीगर बन कर चमत्कारी लीलायें भी करनी पड़ीं, अपनी अभिरुचियाँ, भी त्यागनी पड़ीं । कहाँ तक ऐसे रूपों, ऐसी लीलाओं को, जो अनन्त हैं, पल पल होती रहती थी, अंकित किया जा सकता है ।

Related Stories

No stories found.
logo
The News Agency
www.thenewsagency.in