नीब करौरी बाबा की अनंत कथाएँ: तू तो बावला है, समझता नहीं, मैं किसी का एक तिनका भी नहीं लेता!
येन केन विधि दीन्हें, दान दिये कल्यान तथा अपने लिये कोई अपेक्षा कभी भी नहीं रही के संदर्भ में अपनी एक अनुभूति याद आ गई । सरकारी ड्यूटी में फरवरी से मई १९७३ तक आगरा में रहते हर शनिवार तथा छुट्टियों में मैं महाप्रभु के श्री चरणों में आ लगता वृन्दावन आश्रम में।
मैं देखता रहता कि अष्ट सिद्धि-नव निधि के दाता बाबा जी महाराज स्वयँ कुछ समृद्ध जनों से कभी चीनी लाने/भेजने को कहते, कभी गेहूँ-आटा तो कभी लकड़ी-चावल आदि । एक दिन उनकी इस बात से मन में बड़ा उद्वेलन हो उठा शंकाओं के साथ कि यह सब क्या लीला है ? क्यों स्वयं-सिद्ध बाबा जी जिनकी कृपा लीलाओं से न मालूम कितने भूखे-प्यासों का भरण-पोषण हो रहा है। ऐसा आचरण कर रहे हैं ?
रात को इसी विचार में नींद उचट गई, और फिर नहीं आ पाई बड़ी देर तक । मन में तर्क कुतर्क-शंकायें उठती रहीं । शायद उधर भी मेरे इन असत विचारों ने टक्कर ले ली । तभी मैं स्वयँ बोलने लगा अपने से ही (बाबा जी की ओर से उन्हीं से प्रेरित होकर) “तू तो बावला है। समझता नहीं । मैं किसी का एक तिनका भी नहीं लेता । मैं तो इनसे वही देने को कहता हूँ जो इनके भोग का नहीं है जो या तो अस्पतालों में जायेगा, या अदालतों में, या स्वयँ नष्ट हो जायेगा और आगे भी नष्ट करेगा। इनसे वही लेकर मैं इन्हीं का तो कोष बढ़ा रहा हूँ - इन्हीं के कल्याण के लिए उसे ही जन-जन में वितरित कर ।”
मन को परम शान्ति मिल गई। नींद आ गई। और वैसे भी तो हम सदा देखते भी आये हैं कि एक अंश सेवा का भी फल सौ गुना हजार गुना कर लौटाते रहे बाबा जी महाराज।
— मुकुन्दा