नीब करौरी बाबा की अनंत कथाएं: महाराज जी ने किया  राम नाम के महत्त्व का बखान

नीब करौरी बाबा की अनंत कथाएं: महाराज जी ने किया राम नाम के महत्त्व का बखान

इस कलिकाल में केवल राम का नाम ही एक मात्र आधार रह गया है जनसाधारण के कल्याण हेतु । कर्मकाण्ड, अनुष्ठानादि तो अब जनसाधारण की पहुँच के बाहर हो चुके हैं - सदियों से उत्पन्न होती कई परिस्थितियों के कारण इन कर्मकाण्डों, अनुष्ठानादि में भी समय के साथ बहुत सी विकृतियों समा चुकी हैं और उन्हें पूर्ण रूपेण सम्पन्न करने-कराने लिये भी उपयुक्त पाडित्य एवं साधन दुरूह हो चुके हैं अधिकतर जकीर पीटना भर रह गया है-केवल आत्म-संतोष हेतु, अथवा आजीविका का साधन-मात्र।

इस संदर्भ में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा भी शंकर भगवान ने स्पष्ट शब्दों में कहता दिया कि, “एहि कलिकाल न साधन दूजा । जोग जग्य जप तप त पूजा ।। रामहि सुमिरिय गाइय रामहि । संतत सुनिय राम गुन ग्रामहि ।। जासु पतित पावन बड़े बाना ।" बाबा जी महाराज स्वयं भी सदा यही कहते रहते थे कि, "राम राम कहने से ही सब काम बन जाते वस्तुत बाबाजी महाराज के इस सब काम में आत्मिक उत्थान भी समाविष्ट था ।

और अपने ही मूल स्वरूप में अजर-अमर, अवतारी विभूति राम के श्रेष्ठतम भक्त श्री जाहि न चाहिय कबहुँ कछु वाले हनुमान जी तो अपनी निस्पृहता के कारण बिना किसी रूढ़िवादी अनुष्ठान के ही प्रसन्न हो अपने हृदयन्तर में निरन्तर बसे श्री सीताराम जी के दर्शन भी करा देते।

केवल शुद्ध-सच्चे भाव से इन्हें इनके बल-पराक्रम की सुध दिलानी पहती है इन्हें राम नाम समाधि से जगाकर कि, का चुप साधि रहेज बलवाना । बुधि विवेक विज्ञान निधाना ।। कवन सो काज कठिन जग माही । जो नहिं होहि नाथ तुम पाहीं ।। और बस काम बन गया। प्रसंगवश - मेरी पत्नी द्वारा एक विशेष निवेदन के मध्य महाराज जी ने अपने तई भी कहा था, "हमें अब तक क्यों नहीं बताया ? हमें सुध दिलानी पड़ती है।")

श्री नारायण नाम का सतत जाप करने वाले ब्रह्मा जी के मानस पुत्र नारद जी भी तो श्री राम से यही वरदान माँग बैठे नामन ते अधिका । होहु नाथ अघ खग गन बधिका ।। - राम सबहिं

इन मंदिरों में हर दर्शनार्थी को बिना माँगे, बिना खरीदे हनुमान जी का प्रसाद दिये जाने की जो व्यवस्था महाराज जी कायम कर गये. उसके पीछे उनका एक ही उद्देश्य था कि हनुमान जी का यह भोग प्रसाद पाकर प्राप्त कर्ता का येन-केन-प्रकारेण उत्थान हो। सांसारिक भी और आत्मिक भी ।

और इस राम का नाम लेने की प्रेरणा का मूल श्रोत भी तो हनुमान आराधना ही है। बिना हनुमान जी के राम जी भी अपने को अपूर्ण मानते हैं। बाबा जी महाराज ने भी राम के शंकर भजन बिना नर. भगति न पावई मोरि के सिद्धान्त के अन्तर्गत ही हनुमद-भक्ति (शंकर-रूप हनुमान जी की भक्ति) को ही राम-भक्ति का माध्यम भी और आधार भी बनाया।

पुन, मनुष्यों की पाँचों कर्मेन्द्रियों, पाँचों ज्ञानेन्द्रियों एवं मन - इन ग्यारह इन्द्रियों का नियन्त्रण शंकर भगवान के ग्यारह रुद्रों के मध्य विभाजित है, जिनमें से शिव-शक्ति की ग्यारहवीं। भूमिका में वायु पुत्र हनुमान जी ही मन के अधिष्ठाता है - अधिक गतिशील मन के नियन्त्रक (महाराज जी के शब्दों में कन्ट्रोला जनरल) है । मन को नियन्त्रित किये बिना न तो कोई सांसारिक उपतषि सभव है और न किसी आध्यात्मिक साधना के आदि मध्य और अन। (पूर्णता) की प्राप्ति ही संभव है ।

और यह मन ही मनुष्य की अन्य द। इन्द्रियों को सदाचार अथवा अनाचार की ओर प्रवृत्त करता रहता है। बुद्धि विवेक का भी हरण कर लेता है । अपने मन में बदला लेने की पर । भावना रखने के कारण घोर तपस्या के मध्य अपनी अन्य दस इन्द्रियो ।

आहुति दे डालने पर भी रावण केवल दशानन बनकर रह गया और कौशल नरेश इसी मन-मधुप को राघवेन्द्र के श्री चरण-कमलों में लीन बर। सत्य अर्थ में दशरथ बन गये अन्य दस इन्द्रियो का पूर्ण भोग करे। एकादश हुए भी । अस्तु, बाबा जी महाराज ने अपने इन हनुमान मंदिरों के माध्यम के। भक्तों को, आश्रितों को, और जनसाधारण को भी, उनके अनजाने सांसारिक एवं पारमार्थिक उपलब्धि हेतु मन के अधिष्ठाता हनुमान जी की आराधना के प्रति मुख्य रूप से जागरूक एवं सचेष्ट किया ।

इनमें से कुछ मदिरों में स्थापित हनुमान जी को बाबा जी महाराज ने हनुमान जी के अपने आराध्य, श्री राम जी की तरह ही वस्त्रालकाती विभूषित किये जाने की भी व्यवस्था करवा दी (कि जगत नियन्ता राम जी के सर्वप्रिय भक्त को दास की तरह केवल सिन्दूर-लगोट लपेटे ही क्यों रखा जाये ।) संगमरमर की बनी इन अत्यन्त आकर्षक मूर्तियों को तरह तरह के रुचिकर परिधानों-वस्त्रालंकारों से विभूषित किया जाता है । ऐसी मूर्तियाँ पर वृन्दावन, कैची, काकडीघाट, लखनऊ, कानपुर, भूमियाधार, पिथौरागढ, दिल्ली तथा शिमला में प्रस्थापित हैं ।

वैसे तो भारत वर्ष में असंख्य मंदिर-आश्रम बन चुके हैं, बनते जा रहे हैं – कोई पुरातन हैं तो कोई नवीन । ऋषियों ने, मुनियों ने, गुरुको नियम ने, भक्तों ने तथा सेठ-उमराओं ने भक्ति-भाव से, दान भाव से, लेक कल्याणार्थ अथवा परमार्थ हेतु, अथवा अपने किसी प्रिय की स्मृति में मठो, मंदिरों एवं आश्रमों की स्थापना करवाई ।

परन्तु बाबा जी महाराज द्वारा जो भी हनुमान मंदिर-आश्रम बनवाये गये वे केवल पूर्व में दिये गये संदभ में जन-जन के हितार्थ ही कि रघुवर प्रिय भक्त हनुमान जी के माध्यम से मर्यादा पुरुषोत्तम राम जी के प्रति उनकी भक्ति, उनका प्रेम जागृत होकर अण्ण बना रहे और उन्हें भवताप से मुक्ति दिलाता रहे ।

जैसा उन्होंने स्वयं अपने श्री मुख से व्यक्त किया था कि, इस पोर कलिकाल में गृहस्थों द्वारा अपने घरों में तो पूजा-पाठ होगा नहीं, (अस्तु) केवल मंदिरों द्वारा ही धर्म के सनातन पक्ष की रक्षा हो सकती है, और धर्म-निष्ठ भक्तों के अन्तर में उपजी अथवा व्याप्त आस्था-निष्ठा एवं विश्वास को बनाये रखने के लिए ये मंदिर ही आधार बन सकते हैं। और इसी पक्ष की तुष्टि हेतु इन मंदिरों आश्रमों के निर्माण के मध्य बाबा जी महाराज विभिन्न प्रकार की चमत्कारी लीलाएं भी दर्शाते रहे ताकि इन सत्य-तत्व पूर्ण मंदिरों के प्रति परिकरों की निष्ठा, आस्था एवं विश्वास अक्षुण्ण बना रहे ।

बजरंगगव, काकडीघाट एवं कैची के मंदिरों के सम्बन्ध में बाबा जी द्वारा सृजित ऐसी अलौकिक लीलाओं का विवरण पूर्व में दिया जा चुका है । ऋषिकेष, पौडी एवं हनुमानपट्टी के मंदिरों के निर्माण अथवा मूर्ति स्थापन के माय निर्गुण में प्रविष्ट बाबा जी द्वारा सृजित मनोहारी लीलाओं के विवरण तृतीय सर्ग में दिये जा रहे हैं ।

इस पुष्पाञ्जलि में वृन्दावन, लखनऊ, शिमला, कानपुर एवं दिल्ली के मंदिरों से सम्बन्धित अलौकिक तथ्य दिये जा रहे है । इनमें से हर मंदिर की अपनी अपनी क्या है तथा हर मंदिर बाबा महाराज के स्वयं की अलौकिकता का प्रत्यक्ष प्रमाण भी।

इन मंदिरों में हर दर्शनार्थी को बिना माँगे, बिना खरीदे हनुमान जी का प्रसाद दिये जाने की जो व्यवस्था महाराज जी कायम कर गये. उसके पीछे उनका एक ही उद्देश्य था कि हनुमान जी का यह भोग प्रसाद पाकर प्राप्त कर्ता का येन-केन-प्रकारेण उत्थान हो। सांसारिक भी और आत्मिक भी ।

अब (उनकी महासमाधि के बाद भी) सीमित जन और सीमित साधन-शक्ति से ही इन मंदिरों-आश्रमों में जो नित्य प्रति दर्शनार्थियों को प्रसाद वितरण होता है, आश्रम में प्रवास हेतु आई जनता को भोजन-प्रसाद मिलता है, एवं विशेष अवसरों (स्थापना-दिवस, गुरुपूर्णिमा, हनुमान जयन्ती, राम-नौमी, शरतकालीन पूजा आदि) में वृहद रूप में भण्डारे आयोजित होते हैं, वह सब बाबा जी महाराज की शाश्वत मशा-शक्ति का ही प्रताप है । कैंचीधाम में तो टाइम-बेटाइम पहुँचे लोगों । को भी ऐसा भोजन-प्रसाद पाने की व्यवस्था है ।

आज के दिन तो केवल । वृन्दावन, कैंची, शिमला तथा लखनऊ के मंदिरों में ही वर्ष भर के उत्पद में कुल मिलाकर दो लाख से भी अधिक भक्तगण तथा जनता की भण्डारा-प्रसाद पवाया जाता है । महाराज जी का कथन भी तो यही था कि खिलाओ, खूब खिलाओ और घर के लिए भी बाँध कर दो। और ऐसे दर्शनार्थियों, आश्रम-प्रवासियों एवं भण्डारों में भोग-प्रसाद पाने वालों की संख्या बढ़ती ही जा रही है प्रतिवर्ष !! (१६६३)

(अनंत कथामृत के सम्पादित अंश )

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