नीब करौरी बाबा की अनंत कथाएँ: समाधि के बाद कान में कहना ....पानी पिला दे, बड़ी जलन हो रही है!
सरकार की महा समाधि का समाचार पाकर मैं तो ग्यारह सितम्बर की रात को ही दादा, राजीदा आदि के साथ वृन्दावन को रवाना हो गया था । परन्तु मेरी पत्नी रमा तीनों लड़कों को खिला-पिला-सुलाकर आँगन में बेचैन टहलती ही रह गईं । न आँसू, न विषाद मन-मानस में केवल एक विचित्र-सी मूकता ।
तभी साढ़े ग्यारह बजे रात उन्होंने स्पष्ट रूप से महाराज जी की वाणी सुनी, “पानी पिला दे, बड़ी जलन हो रही है। " तभी ही उन्हें ज्ञात हो गया कि महाराज जी द्वारा त्यक्त पार्थिव शरीर को भस्मीभूत कर दिया गया है । (हम तो यही सोचते थे कि अन्य संतों की तरह उनके शरीर को भी पद्मासन में ला भूमिगत कर समाधिस्त किया जायेगा ।) वाणी सुनकर शीघ्र ही उन्होंने पूजाघर में रखे महाराज जी के चित्र के आगे काँच के एक गिलास में जल भरकर रख दिया। (तब से नित्य ही ऐसे ही जल भर महाराज जी के चित्र के आगे रखने का नियम बन गया ।)
फिर भी पत्नी द्वारा उक्त तथ्य सुनकर भी मेरा शंकालु मन हृदय से इसे स्वीकार न कर सका क्या यह पत्नी के मानसिक उथल-पुथल का ही नतीजा था कि (कल्पना में ही) उन्होंने महाराज जी की उक्त वाणी सुनी ? (मेरी शंका शायद प्रभु को रुची नहीं ।
“मैं तो रोज पूरा गिलास भर कर जल रखती हूँ। और कल रात की तो मुझे पूरी याद है कि पहले कुछ गिर पड़ा था गिलास में तो वह जल फेंककर मैंने उसे फिर से भरकर रख दिया था।"
कभी-कभी पत्नी थकान या अति निद्रा की झोंक में जल रखना भूल जाती थीं तो उसी रात ऐसा होता था कि ग्यारह बजे करीब निद्रा में उनका कंठ बुरी तरह सूख उठता और वे घबराहट के साथ उठ बैठतीं । तब उन्हें जो पहली बात याद आती वह होती 'कहीं महाराज जी के लिये जल रखना तो नहीं भूल गई और देखने पर यही सत्य निकलता । तब उनके लिये जल रखकर स्वयं भी जल पान कर वे सो जातीं । दूसरे दिन ऐसी घटना प्रभु-लीला की चर्चा का विषय बन जाती हमारे लिये ।
परन्तु इससे भी मुझ शंकालु को तृप्ति नहीं हो पाई । और एक दिन रात को मैंने प्रभु से (चित्र में) पूछ ही डाला, 'सरकार, जल ग्रहण करते भी हो या यों ही हो रहा है यह प्रपंच ?” बात आई गई हो गई । मैं भी भूल गया सब कुछ परन्तु महाप्रभु कैसे भूलते ?
जो जल रात को रखा जाता था उसे मैं ही सुबह कुल्ला-मन्जन कर प्रणाम करने के बाद स्वयं ग्रहण कर लेता था। एक दिन सुबह उठकर, कुल्ला आदि कर प्रणाम करने पहुँचा तो देखा कि काँच के गिलास में जल एक तिहाई ही भरा है, यद्यपि ऊपर ढकी जर्मन सिल्वर की तश्तरी यथावत अपनी जगह स्थित है। कहीं इधर उधर जल भी विफरा-गिरा नहीं है।
प्रभु से अपनी कही बात तो मैं भूल गया और स्वभाववश पत्नी पर रोष दिखाते बोल पड़ा, "पूरा गिलास भरकर जल नहीं रखती हो महाराज के लिये ?" उन्होंने उत्तर दिया, “मैं तो रोज पूरा गिलास भर कर जल रखती हूँ। और कल रात की तो मुझे पूरी याद है कि पहले कुछ गिर पड़ा था गिलास में तो वह जल फेंककर मैंने उसे फिर से भरकर रख दिया था।" तब पुनः ख्याल आया कि कहीं लड़कों ने तो कुछ गड़बड़ नहीं की? आँगन पार कर उनके कमरे में पहुँच उन्हें जगाकर पूछा तो उन्होंने कहा, “हम तो रात आरती के बाद पूजाघर में जाते ही नहीं। पहले ही प्रणाम कर आते हैं ।”
तब ? एकाएक महाराज जी से किये गये अपने प्रश्न की याद आ गई । अन्तर में रोमांच हो आया । मेरे प्रश्न, मेरी शंका का उत्तर दे दिया था महाप्रभु ने । उस दिन वह बचा जल, महाप्रभु का परम प्रसाद, सब में वितरण कर ही मैंने ग्रहण किया, परमानन्द की अनुभूति के साथ । सन्ध्या समय दादा को भी यह घटना सुनाई । (मुकुन्दा)