नीब करोली बाबा की अनंत कथाएँ: सारे विश्व को अपना समझे बिना कोई भी साधू नहीं हो सकता !!
वर्ष १९६६ में मैं सुल्तानपुर गया था आडिट कार्य से । वहाँ दफ्तर वालों ने कुछ दूर जंगल में आसन जमाये एक मौनी साधू की बड़ी तारीफ की । उत्सुकतावश मैं भी उनके दर्शनों को गया । उनकी रहनी और आचरण देख प्रभावित भी हुआ । इलाहाबाद लौटा तो पाया कि महाराज पधारे हैं । तुरन्त दादा के घर जाकर उनके समक्ष नत मस्तक हुआ । कुछ देर बाद याद आई तो महाराज जी से उन मौनी बाबा के बारे में (प्रशंसात्मक शब्दों में) कहने लगा।
“महाराज, वे एक निर्जन जंगल में एक पेड़ के नीचे बिना छप्पर-छाँह के आज पूरे ६ वर्ष से रह रहे हैं - जाडा-गरमी-बरसात भर। मौन रहते हैं । बड़े बड़े समृद्ध धनी उनके दर्शन को आते हैं पर वे किसी का भी कुछ भी ग्रहण नहीं करते हैं । साल में केवल एक धोती से गुजारा करते हैं उसी को खुद सी-सी कर पहनते हैं। केवल एक बार प्रसाद पाते हैं दिन भर में । यह धोती और प्रसाद भी केवल अपने घर वालों द्वारा लाया गया स्वीकार करते है।" आदि आदि ।
महाराज जी बड़े नाटकीय ढंग से तखत से झुके मेरी बातें सुनते रहे और मेरे प्रभावित मन-मानस में उठते भावों को पढ़ते हुए-से आँखें घमा-घुमा कर, बीच बीच में आश्चयोन्चित होते-से अच्छा ! अच्छा ! कहते रहे । अन्त में मुझसे उसी तरह पूछा, "क्या धोती-भोजन केवल अपने ही
घर का ही ग्रहण करता है?" "हां महाराज !" सुनकर तत्काल सीधे होकर बैठ गये और कम्बल संभालते हुए बोले, "तब कहाँ से साधू हो गया वह । अभी तो अपने ही घर का सब कुछ पाता है । सारे विश्व को अपना समझे बिना कोई भी साधू नहीं हो सकता !!"
सुनकर मुझे संतत्व के प्रति एक सच्चा दृष्टिकोण प्राप्त हो गया। मनन करने पर पाया कि केवल महाराज जी की ही यह सामर्थ्य है कि वे किसी का भी कैसा ही अर्पण स्वीकार कर उसे अपने योग बल से भस्म कर लें !! और उनकी इस स्वीकृति में जाति, वर्ण, धर्म अथवा देश-काल के प्रति कोई भेद-भाव न था । कहते भी तो थे ही है।” (मुकुन्दा) सारा विश्व मेरा ।